निरत बहे रस धारा

निरत बहे रस धारा
चित् लागे रसिलि पद प्यारा
मूँद-मूँद पावत मणियां
होवत रहत भवन उजियारा

भाव ना जानू कछु
भजन ना करु कछु
पद रज धरण को
बावरी वन वन भटकुं
और कछु आस ना
बस पगली बनाय दे ।
रोम रोम नाचे धुन वो सुनाय दे
महलन में तेरो
महलन, मैं का चाहूंगी
पग तेरे कंकर ना लागे
बुहारन ही बनाय दे ।।।
साहिब है जग को राजभोग तू ही पाय ले
थाल तेरो चाट लू कीड़ो बनाय दे ।

कूचाल कुकर्मी कुरूप को ना संग कर
देखत मोहे कोई कुंजन में छिपाय दे
याद न होवे तो धर ले चित् वाही पल
भाव न होवे सुख जावे कुटिल तन
तृषित नाम जो दियो है
प्यासो रहूँ आजीवन
अंग लगे संग चले
हिय सु हिय मिले
नीर-नीर तृषा तब भी रहे

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