स्त्री पति को ही गुरु बनाये प्रश्न पर प्रतिक्रिया

navdeep giri : Mera ek prshn hai . dharam grantho k anusar nari ko koi any guru nhi bnana chahiye . uske pati he guru hain ye mein manti hu . agr pati ne guru dharn kiye hon or wo patni ko kahe k tume bhi une guru bnana hai to kya kre agr nari mna kre pati se ki ap he mere guru ho or pati fir bhi kahe to kya kare . plz btaye koi galti ho to shamma chahti hu ������

धारणा की बात है कि पति कौन है ?
अध्यात्म आत्मा की ही बात करता है ! और आत्मा के पति तो प्रभु जी है ... वें जगद्गुरु रुप भी तो है !
फिर जैसा आत्मा के परमात्मा रूपी पति कहे वैसा करें

गुरु पति पिता के कहने भर से न हो !
जब तक अपनी आत्मा समर्पण न हो !
जिस छवि को देख भीतर ठहर ना पाये ! वहाँ ही वरण हो ...
कहने पर केवल जड क्रिया होगी !
आत्मसात् न होगा ...

संत शास्त्र पति को गुरु कहते है तो आप भी हल्के न हो ... पति जगतपति को माने ...

गुरु पद के लिये किंचित् स्वार्थी हो !
गहरा हित देखें ... भेड ना होवें !
जहाँ हजारों पहले ही शिष्य हो वहाँ
सम्बन्ध गहरा न हो पायेगा !
गुरु ऐसे हो की पग पग पर प्रशस्त करने के लिये तत्पर हो !
जितने शिष्य दीक्षा के बाद भी सही
पथ पर नहीं हो पाते वहाँ गुरु का भजन और समय दोनों बिगडता है ! गुरु के भजन से ही शिष्य के पथ के कई संकट मिटते है ! ...
गुरु अब लोग इसलिये बनाते है कि गुरु के भजन का हनन कर सके ! जबकि निज भजन गहरा हो ! ताकि गुरु भजन व्यर्थ न जावें !
गुरु का सारा भजन शिष्य के पाप पुण्य के बेलेन्स में लग जाता है !
और दीक्षा के बाद दायित्व भी गुरु का होता है ...
गुरु वहाँ हो जहाँ गुरु,  गुरु होना न चाहे ...
और शिष्य पूर्ण आचरण का निर्वहन करें ! पूर्व में रसिकों ने शिष्य न बनाये ! बनाये तो किंचित् ! जितनो का दायित्व
लिया जा सके ! ...

अपने गुरु पथ की पूर्व में विवेचना कर लें !
अधिकतर दीक्षा हो जाती है बाद में भाव समत्व नहीं हो पाता !
कई बार सगुण उपासकी निर्गुण दीक्षा लें लेते है !
बाद में सब गडबड हो जाता है !
गुरु भी परख लें कि उस भाव के प्रति पूर्व में ही श्रद्धा है या नहीं !
गुरु और चित् एक धारा पर ही हो !
चित में वैष्णव भाव न हो और दीक्षा युगल भाव की हो तब आगे पीडा होती है !
ऐसे लोग मिलते है जिन्हें बचपन में दीक्षा दिला दी गई अब निज भाव अन्य मार्गों पर है और गुरु भाव विस्मृत हो गया है !  ...

500 वर्ष पूर्व जब नारी पर गहरे पर्दे थे ! तब भी रैदास जी ने बाईं सा को दीक्षा दी ! और बहुत संतजन ने कृपा भी की !
संत के चित् से आवाज आती है तो वें स्वयं रुक नहीं पाते !
स्त्री गुरु नहीं बना सकती ! यें शरणानन्द जी
महाराज कहे ... अब ऐसा दिखाई नहीं पडता ...
परन्तु महाराज जी का कथन स्त्री के
लिये कम और दीक्षा देने वालों के लिये अधिक गहरा है ...
चित् की तटस्थता बाधित् होती है !
परिणाम आज सन्मुख है ...
स्त्री गुरु न बनाये ... आज स्त्री को ही गुरु माना जाने लगा है !
चित् में भगवत् अनुराग पूर्ण हो तब ही स्त्री पुरुष के भेद को भुलाया जा सकता है !

दीक्षा भेद से ऊपर की स्थिति है !
दीक्षा के बाद न पुरुष देह पुरुष है ! न नारी देह नारी ...
जब तक निज चित् से भेद न हटे दीक्षा व्यर्थ है !
आत्मा का कोई लिंग निर्धारण नहीं !
संत वाक्य कहता है कि जब तक आभास है मैं स्त्री हूँ तब तक सही नहीं ... जब केवल प्यास रहे ! जेंडर भी चित् से हट जाये तब आनन्द है ! वरन् चित् में शारीरिक धारणा होगी जो निज और संत पतन कर सकती है !

आज जगत् ही दीक्षित् है ...
तो क्या जगत् ही बंधन मुक्त होने को है ! ...
सवाल केवल उनसे होंगे जहाँ भंडारों मैलों दीक्षा हो गई !
कि कौन दायित्व लेगा अब उनका
जबकि वें शिष्य केवल गुरु चरण आश्रय में हो ! आज गांव के गांव दीक्षित् है ...
गुरु रामकृष्ण परमहंस से हो ...
जो नास्तिक नरेन्द्र को विवेकानन्द बना दें !
भीतर से सम्पूर्ण ब्रह्म ज्ञान रस प्रगट हो जायें ! और शिष्य भी विवेकानन्द से हो ... जिसके जीवन की धारा ही बदल जायें और गुरु भाव को विश्व स्तरिय अकेले कह सकें !

अनुयायी सदा पथ से अलग बहने लगते है ...
राच को दिया भक्ति सुने ...
कई खण्ड होंगें 
चैतन्य महाप्रभु ने  कर्म को ईश्वर
की भक्ति का सोपान न माना ...
आज मत और मत के अंग कर्म की ही मंचना सजा कर व्याख्या
कर रहे है !

बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं।
तब ये लता लगति अति सीतल¸ अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं।
बृथा बहति जमुना¸ खग बोलत¸ बृथा कमल फूलैं अलि गुंजैं।
पवन¸ पानी¸ धनसार¸ संजीवनि दधिसुत किरनभानु भई भुंजैं।
ये ऊधो कहियो माधव सों¸ बिरह करद करि मारत लुंजैं।
सूरदास प्रभु को मग जोवत¸ अंखियां भई बरन ज्यौं गुजैं।

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