वैचारिक द्वन्द और भावात्मक एकता , तृषित

इस कुँज भाव में सँग सँग होने पर भी हम सभी वास्तविकता में (कुँज सँग युगल लीला रूपी वास्त्विकता में ) सँग क्यों नही है ???

श्रीकिशोरी जू में अनन्त भाव सुधा है । अर्थात् अनन्त भावों के समुद्र है । प्रत्येक भाव सुधा निधि वत उनमें है जैसे सौंदर्य कोमल्य कारुण्य इत्यादी उनका ही सीमातीत शिरोमणि है । अगर कोई पथिक या भावुक स्वयं में सौंदर्य पाता हो तब किशोरी सौंदर्य दर्शन से वह व्यथा छुट जाती है । अपने में कोई महिमा का अनुभव होना, वस्तुतः महान होना नही होता अपितु यह स्थिति रोग है एक व्यथा है ।जैसे कि मानिये  कोई सुन्दर नही होवें परंतु स्वयं को सुंदर समझे ...अब वास्तविक सुंदरता के दर्शन से ही अपना वह मद झर सकेगा । ऐसे ही समस्त गुण अनुभव होवें अपने एक स्वामी या स्वामिनी में ...अगर नही होते तो कारण है कि वह अन्यत्र अनुभव में हो सकते है चूँकि प्रेम गुणातीत है अर्थात् गुणों की स्थिति से अति दुर्लभतम महिमा प्रेम की है । सभी गुण तो प्रेम की अधीनता में रहते है  सो प्रेमी को सभी अद्वितीय गुण अपने प्रेमास्पद में सुलभ होते है ।
परन्तु ना ही केवल गुण अपितु जीव स्थिति में धारण किये दोष भी अपने प्रेमास्पद के श्रृंगार में मिलने पर छुट जाते है । जैसे हम सभी में परस्पर वामता है ...परस्पर आलोचना या तिरस्कार है । मैत्री या समता अथवा प्रेम का अभाव है जिससे वैचारिक भेद है विचारधारा की एकता नही है यही वामता की हुई... द्वन्द हुआ और भावकुँज द्वन्दातीत है ...कुँज में  सभी सहचरीयों में भावात्मक एक ही  लीलात्मक मधुता का सँग है जिसमें परस्पर वैचित्रि (नवीन अनुभव)केवल सेवात्मक औचित्य से है । परंतु भाव कुँज एक है और नित्य एक ही कुँज मे सँग होकर भावात्मक वैचित्रि रहती है । हमारे यहाँ लोक में वामता-कटुता या मान दोष है ।
यही प्रेम रस रंग में अलबेले श्रृंगार खेल हो उठते है ... जैसे अपने में कोमलता का भृम मिटा वास्तव में अति सघन उस दिव्य कोमलता की छुअन से । अर्थात् किसी भी गुण का भृम ज्यों मिटा है उस दिव्य गुण का अपने प्रेमास्पद में अति सघनता सँग अनुभव करके । त्यों ही अपना वह दोष भाव भी वहाँ प्रेम के सँग से आभुषण हो उठता है । जगत में ज्यों दंगे होते है त्यों प्रेम में रंगों की होली होती है । जगत् में परस्पर वामता से वैचारिक भेद से द्वन्द या मतभेद आदि होता है तो प्रेम में भावों की वामता से मान-मनुहार हेतू नृत्योत्सव हो उठता है । यहाँ ध्यान रह्वे जगत् में भावात्मक वामता नही वैचारिक वामता का स्तर है । वैचारिक भेद अर्थात् देश-धर्म-काल-कुल-स्थिति-जाति-सम्प्रदाय-रँग-रूप-वैभवता आदि मान्यताओं की भिन्नता का अनुभव होना । इन स्थितियों से छूटने पर इनकी भिन्न-भिन्न सत्ता रहती नही है ।  जगत भावात्मक एकता में केवल संस्कृति के आदर से आ सकती थी जो कि हम लगभग खो चुके है । अब जगत् विचारों का तो समूह है परंतु भावों का कोई स्थान अपने में ही किसी भूवासी मानव को अनुभव ना है ।
परिवार में किसी एक की भावना से रसोई बने और सभी उसे उतने ही अनुराग से पावें तब भावात्मक एकता थोडी देर रह सकती थी ।  ऐसा ही हर स्थिति में होता ...सम्पुर्ण जीवन भावात्मक तभी अनुभव होगा जब सभी की भावनाओं को अपनी भावना के श्रृंगार का हेतू अनुभव किया जा सकेगा और इस स्थिति में भावात्मक साहचर्य प्रकट होगा जिससे एक कुँज में उपस्थिति अनुभव होगी और अपने भाव का अनादर ना अनुभव होकर ...अपने भाव का सहज सादर-सत्कार श्रृंगार अनुभव होता रहेगा । यह अधिक समझने हेतू हियोत्सव सभी भाग सुनते रह्वे ।
एक विशेष बात और अगर मुझमें हास्य है तो मुझे हास्य लीला अनुभव होगी । मुझमें जो रस की माँग या पुष्टि वांछित है वही लीला अनुभव होगी । मुझमें वामता है तो अपने स्वामी की वामता का अनुभव होगा जिससे सहज ही मुझमें दैन्य प्रकट हो और मनुहार रूपी स्थिति प्रकट सेवामय रह सकें । यहाँ स्वामी की वह वामता अपना ही गुण या दोष है जो कि उन्होंने भोग लगा कर प्रसाद कर दिया है । अपने भावहीन होने पर बहुत से भौतिकी भक्तों को श्रीरस सरकार लाडिलीलाल में कृपा करुणा आदि का अभाव भी अनुभव होता ही है और ऐसे भजन बहुत ही भावमयता सँग गाकर अपने अभाव रूपी स्थिति को को उनकी मान उन्हें अर्पित करने पर शीघ्र ही आधुनिकी भक्त जागरणों में रो भी पडते है । परिवार भर हम सँग एक ही रस को रूचि से खेल नही पाते ...सँग हँस ही नही पाते  और आलोचनाओं से भरे हम जब सामुहिक आलोचना रूपी जागरणों में सँग होते है तो भावात्मक प्रहारों से भरे भाव गीतों में स्वयं ही भावप्रहार से घायल हो जाते है ...सो स्मृत रह्वें कि दिव्य लीला  भाव-स्थिति की सीढ़ी पर निर्भर है और रसिक सँग सुलभ होने पर सघन भाव रँग का हुलास सुलभ होता है सो कोशिश हो वैचारिक भिन्नता से भावात्मक एकता (कुँज) में होने की । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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