अप्राप्त द्वन्द ... तृषित

निष्काम राजा को विरक्त होने में इतनी दुविधा नही होती जितनी कामनाओं से भरे किसी निर्धन को होती हो । 
किसी स्थिति में कोई दोष नही है ।  दोष है माँग में (कामना) । 
हमारे देश में एक बहुत बडा वर्ग है जिसके पास आधुनिकता का अभाव है ।  और यह है तो सहज कल्याण ही कि विषय-वस्तु प्राप्त ही नही है तो उसे छोडने का चक्कर ही नही है ।  परंतु ऐसा भोग जगत् में सम्भव ही नही कि चित्त वस्तु को स्पर्श से पूर्व छोड चुका हो और पूर्णत: असंग हो ।  अच्छे खासे साधक और धर्म प्रचारक अपनी प्रारम्भिक हवाईयात्रा की छबि लेते ही है जबकि जिनके लिये यह नित्य की बात है उन्हें उससे छूटना है क्योंकि वह इतने वेग के प्रभाव से जीवन पर हुये कुप्रभावों को झेल नही पाते ।
वस्तु का सँग ना छोड वस्तु का दुरूपयोग छोडा जावें और उसमें मन प्राण ना रखा जावें सदुपयोग का प्रयास किया जावें ।
आधुनिकता के प्रभाव से भाव भक्ति में निश्चित हानि है परंतु इस आधुनिकता  को जीवन ना मान सहज मनुष्यता को समझ लिया जावें तो कोई हानि नही है ।  यह  सब ही आधुनिकतायें  मन को विकार में पटके रखने हेतू ही है परन्तु वर्तमान मनुष्य इस व्याप्त आधुनिकता से निकल नही पा रहा है ।  और सरल सहज जीवन के अनुभव हीन होने से वह भाव रस का अनुभव नही जुटा सकता क्योंकि आज विलास शब्द का अर्थ है आधुनिकता ।  जबकि सहज प्रेम का जो निकुँज विलास है वहाँ एयरकंडीशनर नही अपितु हाथ से झलने वाली पंखी है और अपितु वायू ही इतनी शीतल सरल और युगल भाव अनुरूप सेवायत है कि सहज ही वातावरण नित्य ही अति सुन्दर है । आज से लगभग 100-50 वर्ष पूर्व इन वस्तुओं का जब जीवन नही था तब जो त्याग की बात थी वह आज समझ नही आ सकती है ।  क्योंकि आज मोबाईल का त्याग या किसी भी उपकरण का त्याग होने को भक्ति माना जाता है अगर ऐसा है तब तो 100 वर्ष पूर्व सभी दिव्य भक्त हुये होगें । परंतु ऐसा नही था केवल कुछ 10 % प्रतिशत भारतीय सत्य में सत्य की ओर आकर्षित होते है शेष आधुनिकता में मग्न होने की तैयारी में  ।  यह जरुर होता है कि जिनके यहाँ सरकारी नल नही आता वह आधुनिकता पर भाषण देते हो परन्तु बिस्लेरि की बोतल पानी में कुएँ के ऊपर रखी हो और कोई रस्सी से पानी निकाल लें तो वह मात्र भारतीय है । अब शेष जो आधुनिकता में बह रहे वह चेतना नष्ट नही हो रही है वह केवल रोगी हो रही है ।  स्वस्थ स्थिति में वैद्य का सँग भले कोई न करें परंतु रोगी को करना ही पडता है ।
अगर भुतपूर्वी पीढियों ने धर्म के मर्म को हृदय से लिया होता तब भारत का प्रत्येक मनुष्य क्षेत्रज्ञ (किसान) होता ।  आज की पीढी में भी दो लहर है एक प्रौढ़ता पर स्वयं के लिये दलिया या दाल रोटी  और बच्चों के लिये फास्टफूड (मेगी)। बच्चों को भारतीय सिद्ध करना व्यस्क के हाथ में है परन्तु परिवेश ऐसा है कि यह कठिन हो गया है । आज अधिकतम साधकों को हिन्दी ही नही आती और मुझे इंग्लिश में बात करनी नही आती तब यहाँ किन्हीं वास्तविक विचारक को विचार विनिमय हेतू वह आधुनिकता का प्रारूप छूना होगा अथवा प्लास्टिक के विचार वास्तविकता को छूने ही ना देगें ।

अर्थ यही है कि किसी भी साधन का सदुपयोग हो ।  ना कि अनादर या दुरुपयोग  हो ।
आधुनिकता से मुक्त सरल जीवन धर्म या भगवतमय हो सकता है परंतु सदा से उस निम्न स्तर पर कभी विचार रूपी क्रान्ति पहुंचती ही नही । क्या कभी भारत की सडकों पर बिखरी चेतनाओं  को सजग और जागृत करने हेतू कुछ सिद्धत: कुछ घटा ??? उस स्तर पर कोई आधुनिकता नही होने पर भी वास्तविक का वितरण करना कठिन है क्योंकि अप्राप्त कामनाओं को तोड़ना बाहर से सम्भव नही है वह स्वयं को करना होता है । याचक मन्दिर के निकट तो है पर भीतर निकटता हेतू आधुनिक श्रृंगार चाहिये ।  कभी किसी सेठजी ने किन्हीं गोसाईं  जी को यह नही कहा होगा कि मेरे बदले नित्य बाहर बैठे याचकों  को विशेष दर्शन आदि ठीक उतने ही प्रेम से करा दीजिये ।
देश में फैले साधारण सरल आधुनिकता रहित चलचित्र या मोबाईल रहित कितने मनुष्य आपने युगल रस में नख-शिख भीगे देखें है ।
जिसके पास सब कुछ था वह अवश्य रिक्त देखा होगा । पाश्चात्य आधुनिक जगत को सब छोड भक्ति में देखा होगा परंतु भक्ति प्रसाद वितरण में भारत के निर्धन का भी स्थान है ।  वह आधुनिकता हीन होने  पर भी सदा से छुट रहे है कारण भीतर निर्द्वन्द-निर्विचार-निष्काम स्थिति के अनुभव का अभाव । अभाव की कृपा को समझने का अभाव ।

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