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Showing posts from September, 2020

श्रीगोरेलाल जू गद्दी परम्परा

पंचम आचार्य श्रीस्वामी नरहरिदेव जु महाराज के सेव्य ठाकुर श्रीगोरिलाल जु है  इनकी शिष्य परम्परा में  🌹श्रीस्वामी रसिकदेव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी गोविंददेव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी मथुरादास देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी प्रेमदास देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी जयदेवदास देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी श्यामचरण दास देव जु महाराज  🌹श्रीस्वामी हरिनामदास देव जु महाराज  🌹श्रीस्वामी गोपिवल्लभ दास देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी बलरामदास देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी गुलाबदास देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी हरिकृष्णदास देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी दामोदरदास देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी बालकदास देव जु महाराज 🌹एवम वर्तमान बिराजमान पूज्य सद्गुरुदेव जु  महाराज महान्त श्रीस्वामी किशोरदास देव जु महाराज

श्रीटटिया स्थान की गद्दी परम्परा

🌹अखिल माधुयैक: मूर्ति अशेष रसिक चक्रचूड़ामणि, रसिक कमल-कुल दिवाकर महामधुररससार -नित्य बिहार प्रकाशक ,अनन्य नृपति श्रीस्वामी हरिदास जु महाराज  🌹श्रीस्वामी विट्ठलविपुल देव जु महाराज  🌹अनन्य मुकुटमणि गुरुदेव श्रीस्वामी बिहारिणी देव जु महाराज  🌹श्रीसरसदेव जु महाराज  🌹श्रीस्वामी नरहरिदेव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी रसिकदेव जु महाराज  🌹श्रीस्वामी पिताम्बरदेव जु महाराज  🌹श्रीस्वामी ललितकिसोरी देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी ललितमोहिनी देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी चतुरदास जु महाराज  🌹श्रीस्वामी ठाकुरदास जु महाराज  🌹श्रीस्वामी राधाशरणदास जु महाराज  🌹श्रीस्वामी सखीशरणदास जु महाराज  🌹श्रीस्वामी राधाप्रसाद देव जु महाराज 🌹श्रीस्वामी श्रीमहंत श्रीभगवान दास जु महाराज  🌹श्रीस्वामी श्रीमहंत श्रीरणछोड़दास जु महाराज  🌹श्रीस्वामी श्रीमहंत श्रीराधारमणदास जु महाराज 🌹सदा बिराजमान श्रीस्वामी श्रीमहंत श्रीराधाचरणदास जु महाराज  🌹सदा बिराजमान श्रीस्वामी श्रीमहंत श्रीनवलदास जु महाराज 🌹वर्तमान बिराजमान श्रीस्वामी श्रीमहंत श्रीराधाबिहारीदास जु महारा...

अधिक मास अति नीको आयो।

अधिक मास अति नीको आयो। जो जो तिथी उत्सव की आवे करो मनोरथ अति मन भायो। आवै शुदी दौज की जबही प्रिया प्रियतम कू रथ बैठावो। शुक्ल पक्ष की तीजन पै सखी युगल लाल झूलन पधरावो। आठम शुदी बदी जब आवै ललि लाल को जन्म मनावो। नवमी तिथि मास पुरुषोत्तम होरी उत्सव खूब मनावो। दशमी तिथि कूँ विजय यात्रा ललि लालन गज पै पधरावो। अधिक मास की ग्यारस को सखी तुमुल ध्वनि हरिनाम करावो। या मास की पूनो तिथि पै श्री गौरांग बधाई गावो। पूनो तिथि पै ही महारास को करि मनोरथ मोद बढ़ावो। मावस अधिक मास की जब हो दीप दान करि युगल रिझावो। लीला विविध निभृत निकुंज की युगल लाल हित खूब रचावो। मास पुरुषोत्तम इक इक दिन मे करि उत्सव मन मोद बढ़ावो। अधिक मास में अधिक साधना करी करी माधौ परम् फल पावो।

सहज लालसा

*सहज लालसा* लालसा ही रस का श्रृंगार है । रसमयता या सरस रस स्थितियों का अभाव अनुभव हो सकता है परन्तु लालसा का कतई अभाव दिया नहीं गया है तदपि लालसा का अभाव है तो वह अपनी ही रोग स्थिति है । सहज लालसा में ही सहज त्रिविध ताप निवृत्ति भी है । परन्तु सहज और वास्तविक लालसा होने पर लालसा वर्द्धन ही साधना हो जीवनस्थ सिद्ध बनी रहती है । शीतल रस का दर्शन अगर चन्द्रमय वपु में दर्शित है तो उस रस का गहनतम अनुभव भास्करित स्थिति में सहज विकसित हो सकता है । वास्तविक लोलुप्त (पिपासु) को रस पीने की नहीं , रस सेवा देने की लालसा लगी रहती है जबकि स्वयं में रस का ही सर्वथा अभाव बना रहता है तदपि वह स्थिति ही समग्र रस का व्यवहार सेवन कर सकती है , परन्तु वहां वह स्थिति वास्तविक सेविका होने से निज सेवन को सेवा देकर ही अनुभव रखती है । सेवा सिद्धता भी लालसा का अंत नहीं है अपितु सेवा के समग्र विलास का सूक्ष्मतम चिंतन पान किया जावें तो सर्वदा सहज सेवक रहने की लालसा उफन पड़ेगी । सहज नित्य सेवार्थ सेवक लालसा दुर्लभतम है क्योंकि वास्तविक सेवक स्थितियाँ ही रसनिधि की संरक्षक या अभिभावक वत अनुभवित हो सकती है और सेवक में स्व...

स्थिर सुख की दैन पै थिर न सकी मैन

*स्थिर सुख की दैन पै थिर न सकी मैन* सघन युगल निकुँज रस की गहनता चाहिये तो अपनी गहरी स्थिरता स्वयं में अपेक्षित होनी ही होगी ।  लालसा हो थिर-स्थिर (मूर्त) हो रसमय सरस विलास सेवाओं की सेवामयता की ।  सरसता स्थिरता सँग ही फलित होती है सो सेविकाओं में स्थिरता और सेव्य श्रीयुगल में कोमल श्रृंगार विलासों से भरी गहन सरसताएं नित्य वर्द्धन हो ।  अधिकतम आज दर्शक समूह वत ही निकुँज लालसा है । वास्तविक सेवा में हृदय और प्राण मात्र से सचलता भी मिलित श्यामाश्याम के उत्स को अनुभव कर प्रकट होती है । और श्रीयुगल के शीतल मिलन महोत्सवों में वह मिलित शीतलता जब ही मिल पाती है जब उस मिलन रूपी शीतलता की सेवा होकर अबाध प्रीति के और सघन गहन मधुर होने की लालसा में बलैया भी देते न बने । विलसित युगल सँग हेतु मैनवत (मोम की पुतली) सखी चाहिये । मक्खी से लेकर सिंहनी तक के सम्पूर्ण वनचरों का विलास स्थिर या निजतम सँग ही प्रकट हो पाता है । सहजता भरी ललित क्रीड़ामयी प्रीति अति कोमल और विभोरित उत्स है जो कि नित्य सँकोच या लज्जा से आच्छादित रहता है । प्रकृति यौं न चाहियै चाहियै ज्यौं मैन ।  अपनी ओर से बनी स...

नवनीत वर्षण , तृषित

*नवनीत वर्षण* नित्य रस वाणियों में वर्णित उत्सव - रस - राग का नवीन ऋतुकाल और नवीन रागात्मक लीला झंकृत अनुसरण तब बनेगा जब यह स्थिर अनुभव हो कि यह अति मधुर रस मेरा निज नहीं है ।  अर्थात् रोगी को अपनी स्थिति पता हो तो औषधी द्वारा हुए परिवर्तन सहज अनुभवित होगें  कि अपनी स्थिति क्या थी और औषधी ने क्या असर किया । सो नवीन नवीन लीलात्मक सहज सुखों हेतु आचार्य परिपाटियों में वर्णित निकुँज उत्सवित वाणियों-पदों में भिन्न राग ताल की रूपरेखा सहज प्रकट होती है । जिससे वर्णित उत्सव की भाव झाँकी में प्रवेश की सहजता रहती है जैसे कि प्रभात के पदों में प्रभात की राग-रागिनी और संध्या साँझ या रात्रि की झँकृतियों में वैसी ही राग । अगर प्रभात में संध्या भ्रान्ति हुई है तो वहाँ भी वैसी ही राग है जिसमें सन्धि काल मधुर प्रकट है । प्रत्येक ऋतु के अनुसार प्रयुक्त राग के लीला में वर्णित श्रृंगार भी नवीन है जो कि आचार्य रसिकों ने निवेदन भी किये है । जैसा कि शीतकाल मे आम्रफल सहज नहीं और ग्रीष्म काल के भोग वर्णन में उष्णोदक या उष्ण भोग्य रस जैसे कि सूखे मेवे आदि वर्णित नहीं है । वैसे ही उस राग की झांकी ही नवी...

नित्त नैमित्तिक वर्नन (नित्त केलि पद्धति)

नित्त नैमित्तिक वर्नन (नित्त केलि पद्धति) जदपि सरद बसंत रितु,रहत कुंज सब काल। पै रसिकनि क्रम रीति सुभ,यहि विधि कही रसाल।। रवि उदोत तें अस्त लौं,रितु बसंत कौ राज। रजनीमुख तें प्रात लौं,सरद राज सुख साज।। द्वै रितु वर्तत मुख्य ए,अरु सब इनके अंग। ग्रीषम अरु पावस उभै,रितु बसंत के संग।। त्यौंही सिसिर हेमन्त द्वै,सरद भूप के साथ। अपनी अपनी टहल करि,षट रितु होत सनाथ।। इक इक रितु दस दस घरी,रहत नित्त ही आइ। यहि प्रकार षट रितुन कौ,क्रम करि धरहु बनाइ।। षट रितु ह्वै यहि रीति सौं,मिलत सुरति में आइ। प्रथमहिं मधु रितु वरनिये,फाग खेल सुखदाइ।। कुमकुम केसर रंग सौं,भीजे वसन चुचात। सुरति खेद सुकुमार तनु,स्वेदनि छाये गात।। सुरंग गुलाल रसाल सौं,लाल होत तिय लाल। उर अनुरागनि सौं अरुन,भये प्रान पति बाल।। उष्न प्रगटहीं सुरति में,पावस रितु यहि रीति। घन गरजनि किंकिनि बजत,वरषा स्वेद प्रतीति।। झूलनि वर हिंडोर रति,डाँडिन गहि भुज मूल। मनि पटुली जुग जंघ जिमि,कुच झूमक समतूल।। लचकत कटि मचकत नवल,झूलत सुरति हिंडोर। औरै रस ललचात नहिं,नागरि नवल किसोर।। रास रसिक रति सरद रितु,सुख विलसत यहि भाइ। श्रीमुख मंडल विमल पर,भृकुटि कुटिल ...