नित्त नैमित्तिक वर्नन (नित्त केलि पद्धति)

नित्त नैमित्तिक वर्नन (नित्त केलि पद्धति)

जदपि सरद बसंत रितु,रहत कुंज सब काल।
पै रसिकनि क्रम रीति सुभ,यहि विधि कही रसाल।।
रवि उदोत तें अस्त लौं,रितु बसंत कौ राज।
रजनीमुख तें प्रात लौं,सरद राज सुख साज।।
द्वै रितु वर्तत मुख्य ए,अरु सब इनके अंग।
ग्रीषम अरु पावस उभै,रितु बसंत के संग।।
त्यौंही सिसिर हेमन्त द्वै,सरद भूप के साथ।
अपनी अपनी टहल करि,षट रितु होत सनाथ।।
इक इक रितु दस दस घरी,रहत नित्त ही आइ।
यहि प्रकार षट रितुन कौ,क्रम करि धरहु बनाइ।।
षट रितु ह्वै यहि रीति सौं,मिलत सुरति में आइ।
प्रथमहिं मधु रितु वरनिये,फाग खेल सुखदाइ।।
कुमकुम केसर रंग सौं,भीजे वसन चुचात।
सुरति खेद सुकुमार तनु,स्वेदनि छाये गात।।
सुरंग गुलाल रसाल सौं,लाल होत तिय लाल।
उर अनुरागनि सौं अरुन,भये प्रान पति बाल।।
उष्न प्रगटहीं सुरति में,पावस रितु यहि रीति।
घन गरजनि किंकिनि बजत,वरषा स्वेद प्रतीति।।
झूलनि वर हिंडोर रति,डाँडिन गहि भुज मूल।
मनि पटुली जुग जंघ जिमि,कुच झूमक समतूल।।
लचकत कटि मचकत नवल,झूलत सुरति हिंडोर।
औरै रस ललचात नहिं,नागरि नवल किसोर।।
रास रसिक रति सरद रितु,सुख विलसत यहि भाइ।
श्रीमुख मंडल विमल पर,भृकुटि कुटिल नचाइ।।
भूषन बाजे बाजहीं,उरप तिरप संचार।
सिसिर प्रगटहीं सेज रुचि,अंग लपट हेमंत निरधार।।
सब रितु विलसत यहै सुख,और न कछु सुहाइ।
श्रीहरिदासी चित्त नित्त,नव अंग संग उपाइ।।
प्रगट केलि अब वरनियै,रति उद्दीपन जान।
यहि सिंगार समयौ लग्यौ,उदित होत ही भान।।
रवि उदित तें होत है,रितुराज कौ राज।
दस घटिका सुख देत पुनि,ग्रीषम साजत साज।।
या समै में जानिये,द्वै रितु कौ अधिकार।
प्रथम सुरभि पूरन बहुरि,ग्रीषम घटिका चार।।

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