नवनीत वर्षण , तृषित
*नवनीत वर्षण*
नित्य रस वाणियों में वर्णित उत्सव - रस - राग का नवीन ऋतुकाल और नवीन रागात्मक लीला झंकृत अनुसरण तब बनेगा जब यह स्थिर अनुभव हो कि यह अति मधुर रस मेरा निज नहीं है ।
अर्थात् रोगी को अपनी स्थिति पता हो तो औषधी द्वारा हुए परिवर्तन सहज अनुभवित होगें कि अपनी स्थिति क्या थी और औषधी ने क्या असर किया । सो नवीन नवीन लीलात्मक सहज सुखों हेतु आचार्य परिपाटियों में वर्णित निकुँज उत्सवित वाणियों-पदों में भिन्न राग ताल की रूपरेखा सहज प्रकट होती है । जिससे वर्णित उत्सव की भाव झाँकी में प्रवेश की सहजता रहती है जैसे कि प्रभात के पदों में प्रभात की राग-रागिनी और संध्या साँझ या रात्रि की झँकृतियों में वैसी ही राग । अगर प्रभात में संध्या भ्रान्ति हुई है तो वहाँ भी वैसी ही राग है जिसमें सन्धि काल मधुर प्रकट है । प्रत्येक ऋतु के अनुसार प्रयुक्त राग के लीला में वर्णित श्रृंगार भी नवीन है जो कि आचार्य रसिकों ने निवेदन भी किये है । जैसा कि शीतकाल मे आम्रफल सहज नहीं और ग्रीष्म काल के भोग वर्णन में उष्णोदक या उष्ण भोग्य रस जैसे कि सूखे मेवे आदि वर्णित नहीं है । वैसे ही उस राग की झांकी ही नवीन है । तात्पर्य है कि राग आश्रय से उस अवसर या ऋतु या काल का अनुभव हो सकता है । जैसा कि पूरे वर्ष में अपनी स्थिति बड़ी व्याकुल या विरहित हो और उस समय रसिक वाणी कृपा से कल्याण या केदार राग के वर्णित पद सन्मुख है तो स्थिति विरहित नहीं रह सकेगी वह सहज शीतल होने लगेगी जैसे सहज ही कर्मशील प्राणिमात्र को अंधकार के सँग निज शयन सुख आदि चिंतन होने लगते है ।
वर्ष 2018 से सम्भवतः अधिकतम निवेदित भावसेवाओं में राग की नवीनताओं को अनुभव कर ही प्रयोग किये गए है कि वैसे झँकन प्रकट हो सके । आचार्य वाणियों में सिद्धान्त के पदों में भिन्न राग है उनमें वेदना या प्रालाप या दिव्य श्रृंगार के सन्मुख अपनी अधीन असमर्थ स्थितियों का सहज दर्शन प्रकट होता हुआ है । इस काल में मुझे किन्हीं ने अपनी पसंद की वेणु से वार्ता के लिए कहा भी है तो मैने वहाँ युगल सुख लक्ष्य को प्राथमिकता दी है । जैसा कि अभी इस समय मेरी अपनी निज स्थिति में भीषण प्रालाप है परन्तु अगर वाणी सेवा का अवसर बना तो जैसी वह सेवा उन्हें पान करनी होगी वैसा ही वहाँ निवेदन होगा न कि अपनी तत्काल स्थिति का प्राकट्य । विगत सघन गहन रसमय काल मे जहाँ ललित लीलाओं का प्रफुल्ल सँग किसी विधि से विच्छेद न हुआ वहाँ वाणी सेवा में अगर सिद्धान्त या प्रालाप निवेदन हुए है तो वह भी बड़ी कठिन सेवा हुई है जैसे कि विवाह उत्सव में नाचती झूमती किसी दासी को अचानक विभत्स विलाप के स्वप्न प्रकट हो जावें ।परन्तु श्रीजी की प्रत्येक क्षणार्द्ध में सहज नवेली स्थितियाँ अनन्त रागों के लहरों समीरलताओं से भीगकर उन अनुरागों का ही नवीन श्रृंगार कर डालती है। श्रीजी का सँग सहज नित्य प्रकट आश्चर्य है और इतनी सघन सुकुमारी के अग्रिम कौतुकों से सर्वदा अपरिचित दासियाँ सहज ही उनके नवीन हियोत्सव की झूमका बन जाती है। यहाँ पूर्वोक्त वाक्य में हमने एक संकेत ध्वनि में निवेदन किया कि कुछ वाणी पदों में सम्पूर्ण ऋतुकाल पर्यंत की रस रीतियों को बड़ी ही सुगम कृपा से पिला दिया गया है और ऐसे वाणी पद इन दासियों को सहज ही नवीन उत्सवों धकेलते भी है । अगर कोई रस पथिक नित्य श्रीहितचतुरासी जी या केलिमाल जी का पठन-मनन करते है तो वे सहज ही नित्य रस में भीग गए है और उन्हें अब अपनी पृथक स्थितियों से युगल सेवा का अधिकार भी नहीं है क्योंकि वे बहु-बहु सरस नवेले उत्सवों सँग प्राणेश श्रीजोरी का लाड आचार्य कृपा से लडा रहे ही है। उन वाणियों में कोई उत्सव या अवसर नहीं छुटा है अपितु वे बलात् असमर्थ दशाओं को गहरे मधुर ललित केलि सरिताओं में भीगोकर निभृत विलास में सहज भिगोने में समर्थ है जो कि इतनी मीठी सहज रस वर्षा है जैसे कि तापित कोई पथिक या याचक रो रो कर भय सँग शीतल वर्षा के ठहर जाने का विनय करें या जीवन भर का भूखा प्यासा कोई दीन मधुर-मधुर पकवानों को पाने की ना ना करें और बलात् मधुर पकवान पाने हो क्योंकि अपनी तो दशा ही न थी प्राणी की इतनी ललित केलि माधुरी झेलने की सो रस वाणी तो सहज सरस् मधुरित शीतल यमुनोत्री ही है। यहाँ निवेदन कर दें कि किन्हीं पथिको को अगर नितांत सुरत रस केलि विलास का अनुभव अपेक्षित माँग में नहीं है और वें स्वयं को पियप्यारी की सहज मधुरित मिलन माधुरियों में बहने से रोकने का पूर्ण हठ भी किये हुए है तो भी आचार्य कृपा से सुलभ सरस् सघन रस रीति की वाणियां इतनी शीतल मधुर ललित वर्षाओं में सहज भीगो ही देगी । अपितु सम्भव है कि इन वाणियों को पीकर भी ना करने वाले पथिकों या हठात भीतर सघनताओं में प्रवेश से स्वयं को रोकते पथिकों की बात पहले बने अपेक्षाकृत मांग या लालसाधारियों से । क्योंकि सहज ना करती स्थितियाँ ही सहज रस की सेवा अधिकारी है क्योंकि वे अपनी ना को स्मृत करेगी तो वह पी न सकेगी केवल पिलाती ही रह जायेगी । जैसे कि मधुमेह के रोगी को ही शर्बत वितरण दे दिया जावें । सो वाणियों में अबाध कृपा है और जीव को अपनी पूर्व दशा अगर स्मृत है तो वाणी पाठ या समाजगान से सुलभित रसमय दशाओं का यह वातावरण सहज चहुँ ओर अब जो सर्वदा के लिये आच्छादित हो गया है वह सहज कृपा अनुभव है । परन्तु सहज पथिक को सर्वदा अपनी प्रथम मांग और प्रथम स्थिति अनुभव रहे कि वह तो बस धूप को थोड़ा कम करने को कहा था और अब है कि सहज वर्षा रुकने का नाम ही न लेती और वस्त्र आदि के सूखने भर का ताप भी प्रकट नहीं है , लोक में तो अपनी ही मांग और दशा की स्मृति नहीं होती परन्तु सहज पथिक को अपनी प्राथमिक विकृत तापमय दशा स्मृत रहेगी तो सहज शीतल चन्द्रिकाओं सँग होती रसवर्षा रूपी पियप्यारी के सुख की यह मधुर झूमती विपिन लताओं के नव-नव सुरभित सँग की अनुभूति प्राणों पर छपी ही रहेगी । युगल तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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