सहज लालसा
*सहज लालसा*
लालसा ही रस का श्रृंगार है । रसमयता या सरस रस स्थितियों का अभाव अनुभव हो सकता है परन्तु लालसा का कतई अभाव दिया नहीं गया है तदपि लालसा का अभाव है तो वह अपनी ही रोग स्थिति है । सहज लालसा में ही सहज त्रिविध ताप निवृत्ति भी है । परन्तु सहज और वास्तविक लालसा होने पर लालसा वर्द्धन ही साधना हो जीवनस्थ सिद्ध बनी रहती है । शीतल रस का दर्शन अगर चन्द्रमय वपु में दर्शित है तो उस रस का गहनतम अनुभव भास्करित स्थिति में सहज विकसित हो सकता है । वास्तविक लोलुप्त (पिपासु) को रस पीने की नहीं , रस सेवा देने की लालसा लगी रहती है जबकि स्वयं में रस का ही सर्वथा अभाव बना रहता है तदपि वह स्थिति ही समग्र रस का व्यवहार सेवन कर सकती है , परन्तु वहां वह स्थिति वास्तविक सेविका होने से निज सेवन को सेवा देकर ही अनुभव रखती है । सेवा सिद्धता भी लालसा का अंत नहीं है अपितु सेवा के समग्र विलास का सूक्ष्मतम चिंतन पान किया जावें तो सर्वदा सहज सेवक रहने की लालसा उफन पड़ेगी । सहज नित्य सेवार्थ सेवक लालसा दुर्लभतम है क्योंकि वास्तविक सेवक स्थितियाँ ही रसनिधि की संरक्षक या अभिभावक वत अनुभवित हो सकती है और सेवक में स्वामी की भ्रान्ति प्रकट हो सकती है लेकिन सहज सेवक तो केवल और केवल सेवक ही नित्य रहने के लिए लालायित है । सेवा का जितना दायित्व बढ़ता है अर्थात् जितना कार्यभार बढ़ता उतना ही न्यूनतम सेवक होने का सौभाग्य फलित होता है । ऐश्वर्य दर्शी लोक में ऐसी स्थितियाँ मन्त्री या सचिव कही जा सकती है परन्तु सेवा के ऐश्वर्य जनित चिन्हों के प्रति सेवामयी चेतना का रतिमात्र आकर्षण सहज सेवा के सहज सेवक सुख का सहज त्याग है । सो सेवा सिद्धता पर लालसा रिक्त नहीं हो सकती अपितु वहाँ स्वयं को सर्वथा सेवक ही स्वीकार रखने का यज्ञ प्रकट रहता है । भोग और भोगी के मध्य सर्वदा अग्नि तत्व है और उस दुर्लभ अग्नि तत्व के सहज लोभी को ही सहज भोग का दिव्य प्रसाद प्राप्त हो पाता है अर्थात् जिसके द्वारा किये गये यज्ञ में कोई फल कामना ना होकर सहज यजन में अग्नि सानिध्य में नाना भोग अग्नि अर्पित करने का दिव्य सुख ही निहित हो वह तपस्वी । लालसा वह ही सहज और सिद्ध लालसा है जिसके अंकुरण में भी लालसा की लालसा और फल में भी लालसा की लालसा ही प्रफुल्ल हो सकती हो अन्यथा किसी भी कामना सहित उठी लालसा कहीं न कहीं ठहर या मिट ही जाती है ।परन्तु लालसा हो कि लालसा उठे और नित्य ही नवेली हो उठे तब जीवन का नृत्य विलास अनन्त भुवनों को तृप्त करते हुए भी अतृप्त हो सेवार्थ लालसामय हो और पिपासु हो हो कर खिलता रहता है । जीवन मे प्राप्त समस्त सरस शीतलता-मृदुता-कोमलता आदि सिद्धियाँ तो केवल सेवार्थ ही प्राप्त है , स्वयं हेतु कोई स्थिति है तो भोग की समिधा (ईंधन) होने का गौरव । सेवक और सेव्य के मध्य समान भोग होने पर भी जो भी सहज प्राप्त सुख भोग का त्याग कर सकें वही सेवक सिद्ध है । सेवक की अपनी एक मात्र वस्तु तो सेवा ही है , ना कि सेवा के हेतु में मिला पारितोष या पुरस्कार । युगल तृषित । दिव्य पुरस्कार कुछ है तो वह है सहज रस की नित्य प्रवर्धित लालसा (तृषा) । । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । ।
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