जो आरति है जगत में,सो आरति हम नाहिं , तृषित
*श्रीहरिदास श्रीहरिदास* *जो आरति है जगत में,सो आरति हम नाहिं।* *गौर श्याम आरति हिये,सो आरति मन माहिं।।* नित्य बिहार रस में दासी - सहचरीगण जो सेवा विलास निवेदन करने को सहज आन्दोलित है , वह कोई दिव्य ही सेवाएं है री । वह सामान्य सेवा श्रृंगार नहीं है , वहाँ तो महाभाव की वर्षाएँ आभरित हो हो कर श्रीपियप्यारी को हर्षाये रही है । रीझे भीजै श्रीललित श्यामाश्याम के प्रीति उत्सवों का सरस् मधुर उत्सव जहां-जहां झूम-झूम कर उन्मादित हो-हो कर और सेवा और सुख देने का महोत्सव खोज खोज बाँवरा हो चुका है , वह सरस् श्रृंगारिणीयाँ सहज सरस् सेविकाएँ है और कृपा है रस रीति के गीत की कि वह कह ही देती है री , कि वें हम है ...हाँ हम है , वह आरती । कैसा आर्त ...लोक भाँति त्रिविध (आध्यात्मिक-आधिदैविक-अधिभौतिक) आर्त नहीं है यहाँ । यहाँ आर्त है ...और सघन ... और सरस ...और मधुर प्रीति महोत्सव विलास उनका परस्पर प्रकट हो , और विलास सजे और श्रृंगार हो और और सेवा हो । यहाँ आर्त है कि न हम सेवा देती थके , ना ही आप प्राणिनीप्राण हमारे सेवा लेते हटे । बस यह आरतियाँ प्रीति-रैन बटौर बटौर झूम रही है , यह वह आरतियाँ नहीं जो ...