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Showing posts from November, 2020

जो आरति है जगत में,सो आरति हम नाहिं , तृषित

*श्रीहरिदास श्रीहरिदास* *जो आरति है जगत में,सो आरति हम नाहिं।* *गौर श्याम आरति हिये,सो आरति मन माहिं।।* नित्य बिहार रस में दासी -  सहचरीगण जो सेवा विलास निवेदन करने को सहज आन्दोलित है , वह कोई दिव्य ही सेवाएं है री । वह सामान्य सेवा श्रृंगार नहीं है , वहाँ तो महाभाव की वर्षाएँ आभरित हो हो कर श्रीपियप्यारी को हर्षाये रही है । रीझे भीजै श्रीललित श्यामाश्याम के प्रीति उत्सवों का सरस् मधुर उत्सव जहां-जहां झूम-झूम कर उन्मादित हो-हो कर और सेवा और सुख देने का महोत्सव खोज खोज बाँवरा हो चुका है , वह सरस् श्रृंगारिणीयाँ सहज सरस् सेविकाएँ है और कृपा है रस रीति के गीत की कि वह कह ही देती है री , कि वें हम है ...हाँ हम है , वह आरती । कैसा आर्त ...लोक भाँति त्रिविध (आध्यात्मिक-आधिदैविक-अधिभौतिक) आर्त नहीं है यहाँ । यहाँ आर्त है ...और सघन ... और सरस ...और मधुर प्रीति महोत्सव विलास उनका परस्पर प्रकट हो , और विलास सजे और श्रृंगार हो और और सेवा हो । यहाँ आर्त है कि न हम सेवा देती थके , ना ही आप प्राणिनीप्राण हमारे सेवा लेते हटे । बस यह आरतियाँ प्रीति-रैन बटौर बटौर झूम रही है , यह वह आरतियाँ नहीं जो ...

स्वार्थ प्रकरण , तृषित

*स्वार्थ प्रकरण* 1  स्वार्थ कौ रच्यौ सबहिं स्वांग जी ढेला भलि ना पहिचानै चित्त विषयी इष्ट स्वार्थ माने जी संचे खर्चे सबहिं व्यापार कौ मूल भोग स्वार्थ जाने जी धरम करम सेवा साधना छाडहिं जीव स्वार्थ स्वांगे जी रस रीति भीजै पद सेवन कौ साँचो स्वार्थ तृषित पावै जी 2 हित परहित कछु ना जानै , निज स्वार्थ रँग-रचना जीवन मानै  पुहुप झाडै विषय कीच डूबै भोग भजै स्वार्थ झाड फँसै जीवन मानै जागै स्वार्थ , सोवै स्वार्थ तबहिं साँचो स्वार्थ भजन ना जीवन मानै चलै सबहिं कौ कुचल संहारै आसन-मुकुट सब स्वार्थ जीवन मानै मूढ़ ढोल अल्प स्वार्थ विज्ञानी स्वार्थ हेत निज चेतन बेचहिं जीवन मानै तृषित अबहिं लोक भाव-रस-प्रीति का जानै , जोईं देहरी सजावै स्वार्थ देव निज मानै 3 सबहिं बिगाड़ी स्वार्थ सँग  रोग लग्यौ जोईं स्वार्थ कौ वैईं ना निरखै प्रेम देहरी कौ रँग जीवन प्यासो भटकहिं फिरै जोईं न पीवै प्रेम सुधा कौ चँग प्रेम को विलोम जैई कपूत स्वार्थ तजि भलि लिपटै अनिल अँग सबहिं रोग छूटै , जै दाग न छिटकै आपहिं बुझावै प्राण दीपक एसौ कपटी सँग 4 प्रेम वल्ली सबहिं खोजै , मिलै ना प्रेम की एकहूँ पात जीवन साँचो जीवै प्रेमी ...

सम्पूर्ण रस रीति , तृषित

कोई भी रस रीति ऐसी नहीं जो निभृत रस न हो । सभी रस मार्ग सहज निभृत रस मार्गी है । कोई भी रस रीति मध्य में नहीं अटकती । बस उनकी विधि - सेवा - भावना विविधताओं विचित्रताओं से सजी है । गाँव मे भी ब्याह होता है और सम्पन्न धनी भी भव्य स्वाँग सँग विवाह रचता है , कुछ मूल मूल संस्कार समान होते है और कुछ भाव-साधन अनुरूप भिन्नता होती है ।  मीठा लड्डू भी है और हलुवा भी है और भी कितने ही पकवान है । सो भोग रस निवेदन की विधि रस रीति कथित है और सभी रस रीतियां सम्पूर्ण भोग सेवा निवेदन करती है । भावात्मक वैचित्री वैसे ही आवश्यक है जैसे भोग थाल में स्निग्ध घृत , क्षार रूप नमक या मधु रूप पकवान आदि सँग है । वैचित्री नवीनता की सहज सेवा रखती है । रस मार्ग की पड़ताल की अपेक्षा अपने सहज सेवात्मक स्वभाव को अनुभव करने की चेष्टा हो और इसके लिए ही सत्संग आदि सहायक है । यहाँ सहज शरणागत सभी साधनों का अपवाद है , मेरे इस जीवन के किसी क्षण से या तनिक से लेकर जीवन भर के सँग से भी यह सिद्ध नहीं हो सकता था कि क्या अतिव विपुल हुलास विलास सेवाओं से भरे ललित रँगमहल की ब्यार स्पर्श मात्र की समता भीतर है । नीरसता इतनी प्रकट ...

सुभगिनी शरद , तृषित

*सुभगिनी शरद* शरद रस चन्द्रछटाओं की तरलता-शीतलता का सुरभित-लास्यता में श्रृंगार वर्द्धन है । यह शरद कुछ अनुराग सँग में प्रभा-छटा बिखेरती है तो किन्हीं में शीतलता का प्रवर्द्धन प्रकट करती है तो किन्हीं अनुरागों में सुरभित लास्यता में झूम-लहरा रही होती है । श्रृंगार रस में जिस भी रागिनी के सँग श्रीदम्पति को नवीन लास्य झँकृत करें वह नृत्यवती रास रस की सेविका है । अगर होली के भावगीत में वह रँग खेल सँग नृत्यमय भी है तो रास अभी गया नहीं है । अपितु कोई नित्य सेवा रस कभी जाता नहीं है बस उसका स्वरूप गम्भीर और तरल होता जाता है । यही लास्य डोल-हिंडोल में भी सेवित जिसमें सुरँगित रसिली जोरि को लिए झूमता हिंडोला ही नृत्यमय हो लास्यता की कोपलें नयनों से नयनों में रँग रहा होता है तो आलस भरित पौढाई में भी किन्हीं शेष-विशेष अलंकारों के नृत्य गीत केलिमयी वल्लित सुजोरी को पुनः - पुनः तरँगित सेवाओ में भीगोकर लास्यता की नित्यता को  विनय करते है कि कुछ काल तो थिर जाओ परन्तु जहाँ विश्राम सेवा ही परस्पर में प्रकट होती हो तो अपने अपने विश्राम हेतु अपनी अपनी प्रेमास्पद रूपी सेज में प्रवेश के आन्दोलन लास्य रस...

श्रृंगार गूँथन , तृषित

*श्रृंगार - गूँथन* प्रेम का अभिव्यक्त स्वभाव है , श्रृंगार । प्रेमास्पद का और श्रृंगार । परन्तु वह श्रृंगार जो उन्हें सहज रुचता हो , वह श्रृंगार जो वह तलाश रहें हो , वह श्रृंगार जो उनकी प्रीति का पोषण करता हो । प्रीति-प्रियतम या प्रेमासक्त दम्पति श्रीनागरी-नागर सँग में प्रेम  निवेदन में भीगे है तो इस सँग में इस मधुर दम्पति के हाव-भाव और समस्त निवेदन मात्र ही नहीं निवेदिता-निवेदिका यह सहचरियाँ स्वयं ही है श्रृंगार वपु । प्रीति की बहती धाराओं-झरनों में कभी विराम आता ही नहीं परन्तु सुकोमल प्रेम को जिस रीति प्रीति से आरोगन या रँगन-रञ्जन निवेदन होता है वह रँगाई है श्रृंगार । ज्यों नन्हें शिशु को ऋतुवत् वसन-भोजन सुख निवेदन होते है , वह कहें न कहें परन्तु शीतकाल बढ़ते ही ऊष्ण वसन निवेदन होने लगते है त्यों प्रेम जो कि अपने मूल विश्राम प्राण श्रीयुगल में प्रफुल्लित होकर उमङ्गित होता ही जा रहा है , उसी प्रेम को और उसमें निहित मधुर सुख को सम्भाल कर रूचि सहित ऋतुवत् रससेवा निवेदन होना श्रृंगार है । लोक में स्वार्थ का आकार दिन-प्रतिदिन इतना बढ़ गया है कि प्रेम का स्वाद ही अनुभव शून्य है परन्तु जि...

72 मेलराग मालिका (थाट)

७२ मेळरागमालिका ताळम: आदि पल्लवि - श्रीरागम प्रणतार्तिहरप्रभो पुरारे प्रणवरूप संपदे पदे । प्रणमामि श्री प्रकृतिप्रेरक प्रमथगणपते पदे पदे ॥ जति तां तां तकणक धीं धीं धिमितरि किटतक तरिकुडु तधीं धींकु तकधिमि तकतरि किटतक झम नादिरु दिरुधों दिरुदिरु दित्तिल्लाना दिरिना ताना दोंतिरि तकणक तकजणु तकधिमि ध्रुक्डतत तळाङ्गुतों तकतिक तधिङ्गिणतोम अनुपल्लवि - चरणम कनकाङ्ग्या रमया पूजित सनकादिप्रिय कृपालय ॥ १ ॥ रत्नाङ्ग्या धर्मसंवर्धन्या रमण मां परिपालय ॥ २ ॥ गानमूर्तिरिति धनशास्त्रमानमूर्धन्यैर्गदितोऽसि ॥ ३ ॥ श्रीवनस्पतिदलसमर्चनेन पावनभक्तैर्विदितोऽसि ॥ ४ ॥ मानवतीभिः स्मृतिभिरुक्तकर्मकृन मानवपापं वारयसि ॥ ५ ॥ तानरूपिणं त्वां भजन्ति ये तारमुपदिशंस्तारयसि ॥ ६ ॥ देवसेनापतिजनक नीलग्रीव सेवकजनपोषण ॥ ७ ॥ हनुमतो डिण्डिमभवं स्तुवतः सुतनुमतोऽददाभूतिभूषण ॥ ८ ॥ भानुकोटिसंकाश महेश धेनुकासुरमारकवाहन ॥ ९ ॥ आनन्दनाटकप्रियामरवर श्रीनन्दनाटवीहव्यवाहन ॥ १० ॥ कोकिलप्रियाम्रकिसलयाङ्ग गोकुलपालनपटुभयभञ्जन ॥ ११ ॥ बहुरूपावतीह भवान मां मुहुर्मुहुरूर्जितभक्तजनरञ्जन ॥ १२ ॥ धीरभद्राख्यगायकप्रिय वीरभद्रादिपालितशरण ॥ १३ ॥ देवकुलाभर...

अदृश्य कौलाहल , तृषित

* अदृश्य कौलाहल * किसी भी रस लोलुप्त सहज पथिक को हमारे भावसेवा रूपी वाणीसेवा निवेदन प्रारम्भ में आश्चर्यचकित कर सकते है । फिर जब उनकी साम्य स्थितियाँ बन जाएगी , तो धीरे-धीरे वें स्वयं सुधारक होकर मेरे हेतु मार्ग प्रेरक भी बन गए है । यहाँ अभी भी छींटे भर की लेन देन बनी है , (अगर शंख भी श्रीहरि सेवा में है तो वह रस से रिक्त नहीं है , कुछ आर्त छींटे से वह स्वयं की सहज नित्य सँग माधुरी का निमज्जन प्रकट कर भी नहीं कर पाता हो और रिक्त होने से पूर्व ही रसाभरित हो उठता हो त्यों यह विचित्र सेवा पथ... ) कृपा वर्षा अतिव गहन और सघन उत्सवों में आच्छादित है । ग्रीष्म में ताप , सर्दी में शीतलता और वर्षा काल मे रस स्पर्श की अनुभूति साधनावत हो तब भी प्रीति के सहज अनुभव अतिव सुदूर है क्योंकि तपस्वी और प्रेमी में जीवन के स्वभाविक स्वरूप का भेद हो सकता है , सिद्ध तपस्वी स्वयं की अद्भुत दिव्यता को पा चुका होगा और सहज प्रेमी की सिद्धता उसके प्रेमास्पद के सुख में सहज प्रकट अनुभवित है , प्रेमी के जीवन का दर्शन उसके प्रेमास्पद के रस श्रृंगार से झलक सकता है । प्रेम की यात्रा के समस्त साधन या तप उत्सवित उन्माद ...