श्रृंगार गूँथन , तृषित
*श्रृंगार - गूँथन*
प्रेम का अभिव्यक्त स्वभाव है , श्रृंगार । प्रेमास्पद का और श्रृंगार । परन्तु वह श्रृंगार जो उन्हें सहज रुचता हो , वह श्रृंगार जो वह तलाश रहें हो , वह श्रृंगार जो उनकी प्रीति का पोषण करता हो । प्रीति-प्रियतम या प्रेमासक्त दम्पति श्रीनागरी-नागर सँग में प्रेम निवेदन में भीगे है तो इस सँग में इस मधुर दम्पति के हाव-भाव और समस्त निवेदन मात्र ही नहीं निवेदिता-निवेदिका यह सहचरियाँ स्वयं ही है श्रृंगार वपु । प्रीति की बहती धाराओं-झरनों में कभी विराम आता ही नहीं परन्तु सुकोमल प्रेम को जिस रीति प्रीति से आरोगन या रँगन-रञ्जन निवेदन होता है वह रँगाई है श्रृंगार । ज्यों नन्हें शिशु को ऋतुवत् वसन-भोजन सुख निवेदन होते है , वह कहें न कहें परन्तु शीतकाल बढ़ते ही ऊष्ण वसन निवेदन होने लगते है त्यों प्रेम जो कि अपने मूल विश्राम प्राण श्रीयुगल में प्रफुल्लित होकर उमङ्गित होता ही जा रहा है , उसी प्रेम को और उसमें निहित मधुर सुख को सम्भाल कर रूचि सहित ऋतुवत् रससेवा निवेदन होना श्रृंगार है । लोक में स्वार्थ का आकार दिन-प्रतिदिन इतना बढ़ गया है कि प्रेम का स्वाद ही अनुभव शून्य है परन्तु जिसने भी कोई एक दिवस भी स्वार्थ शून्य सेवामय होकर व्यतीत किया होगा , वही सेवामयता मीठी होकर छपी होगी भीतर कहीं न कहीं । कभी कुछ क्षण सत्य में स्वयं को दासवत् अनुभव रख सेवा मात्र हो जाने का प्रयास भर कीजिये वह हृदय को रस से भर देगा । परन्तु सेवक होने का एक ही प्रण है , सेवामय होना ... केवल सेवक होना । अपने लिए सेवाएं चाहते हुए हम कभी सेवाओं की सहज सुगन्ध नहीं छू पाते । सेवा की अभिव्यक्ति और प्रेमास्पद का श्रृंगार दोनों में जब तक भेद है तब तक प्रेम-अनुभव दूर है । प्रेमी तो तलाश रहा सुख अपने प्राणधन हेतु परन्तु अनन्त सुख सेवा देकर भी वह नित्य तलाश ही रहा है कोई नवीन सुख , जिसे श्रृंगार देने का व्यसन लग गया है वह लोक में सेवा नहीं दे सकता क्योंकि उसकी सेवाओं में विराम होगा ही नहीं । प्रेमी प्रियतम अपनी प्राण सजनी का वधु स्वरूप में श्रृंगार करें या वधुप्रिया श्रीसुन्दरवर के श्रृंगारों को और श्रृंगार में भरें तो वह परस्पर में झूमती प्रेम की भराई कभी पूरी होती नहीं है । प्रेमिल गोपिका भी तो जल भरने के पुलिन पर ही सुवास भरी रहती है ज्यों जल भरकर वह लौट ही ना पाती हो । प्रेम की गागर तो रस सागर पीकर भी नित्य तृषित है और यह पनघट श्रृंगार की प्रथम झंकृति ही है । कुँज-निकुँज और विलासमयी विश्रामसेज तक श्रृंगार ही नवनीत होता हुआ गाढ़ता को छूना चाह रहा है । प्रेमिल स्थितियों को तरलता का पर्याय देने की क्या आवश्यकता है , उनका तो रोम - रोम रस-अभिसार में बहता ही रहता है , वह थाम भी लें तो यह रस प्रकम्पन होकर भीतर हृदय को गीला सा - भीगा सा रखता ही है । यहीं ललित तरलता जब नदी होकर दौड़ती है भीतर तब ही प्रेम पथ की धारा रूपी यात्रा में प्रवेश बनता है और आगे बढ़ते बढ़ते यह ही तरलता स्निग्ध(चिकनी) - मधुर - सुकोमल होती हुई मधु-पंक सी होती हुई सुगाढ़ यात्रा करती है इस प्रेम की दलदली मधुरा में जब अपने प्रेमास्पद सुख सेवाओं के पुष्प खिलने लगते है तब श्रृंगार कुँजन के पट खुलते है और यह पट नित्य नवीन दृश्य रचता रहता है ...यह ही अनन्त कुँजन की झँकृत दृश्यावलियाँ है । और अब भी तलाश रही हो श्रृंगार शब्द का अर्थ तो लेपन करो श्रीवृन्दावन के कोमल कीच का । श्रीप्रियाप्रियतम के ललित प्रेम श्रृंगारों का ही विलासवन श्रीविपिनराज स्वयं है । सरस् प्रेममय रसीले रँगीले श्रृंगारों के आश्रय-विषय है यही श्रीवृन्दावन ...श्रीवृन्दावन ... ...श्रीवृन्दावन । श्रीवृन्दावन में आई साँस हेतु वायु अमनिया नहीं है , उस सेवा धरा पर श्रीप्रियाप्रियतम रस नि:श्वांस हो नादित हो बह रहा है और अगर है वह रव-रव या रेणु -रेणु अमनिया तो वह तुम्हें-मुझे छुए बिना दौड़ जाएंगी सघन निकुँज में उन्हें छूकर विवश हो अभिसारित रहने को । अर्थात् श्रीयुगल सेवा में स्निग्ध कण या वायु रव मात्र भी श्रृंगार केंद्र का अप्राकृत वह रस है ,जिसे अप्राकृत कृपा ही प्रकट करा सकती है । श्रृंगार है अलि- सहचरी । अपितु इन अलिन की ध्वनि-ध्वनि और चलत-फिरत की मुद्रा-मुद्रा मधुर श्रृंगार प्रसाद ही है । श्रृंगार है आचार्य वाणियाँ , अगर कोई चित्त रससेवार्थ कभी गीला हुआ है तो अवश्य उसका किन्हीं दिव्य सुरभित माधुरी वाणी का कृपा झँकन सुलभ हुआ ही है । युगल तृषित । श्रीवृन्दावन द्वारा श्रीवृन्दावन में श्रीश्यामाश्याम के अनन्त श्रृंगार नित्य श्रीवृन्दावन हेतु प्रकट है और श्रीवृन्दावन के श्रृंगार रस फल है रसमत्त सुरँगित श्रीयुगल माधुरी । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । जिससे श्रीयुगल का सुगोप्य दिव्य सुखरस मधुर - कोमल सम्पादन होता हो और जिसमें श्रीयुगल सुख और पुष्ट होता हुआ सेवामय श्रीयुगल सँग अनुभवित हो वह है श्रीललित श्रृंगार रस ।
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