सुभगिनी शरद , तृषित

*सुभगिनी शरद*

शरद रस चन्द्रछटाओं की तरलता-शीतलता का सुरभित-लास्यता में श्रृंगार वर्द्धन है । यह शरद कुछ अनुराग सँग में प्रभा-छटा बिखेरती है तो किन्हीं में शीतलता का प्रवर्द्धन प्रकट करती है तो किन्हीं अनुरागों में सुरभित लास्यता में झूम-लहरा रही होती है । श्रृंगार रस में जिस भी रागिनी के सँग श्रीदम्पति को नवीन लास्य झँकृत करें वह नृत्यवती रास रस की सेविका है । अगर होली के भावगीत में वह रँग खेल सँग नृत्यमय भी है तो रास अभी गया नहीं है । अपितु कोई नित्य सेवा रस कभी जाता नहीं है बस उसका स्वरूप गम्भीर और तरल होता जाता है । यही लास्य डोल-हिंडोल में भी सेवित जिसमें सुरँगित रसिली जोरि को लिए झूमता हिंडोला ही नृत्यमय हो लास्यता की कोपलें नयनों से नयनों में रँग रहा होता है तो आलस भरित पौढाई में भी किन्हीं शेष-विशेष अलंकारों के नृत्य गीत केलिमयी वल्लित सुजोरी को पुनः - पुनः तरँगित सेवाओ में भीगोकर लास्यता की नित्यता को  विनय करते है कि कुछ काल तो थिर जाओ परन्तु जहाँ विश्राम सेवा ही परस्पर में प्रकट होती हो तो अपने अपने विश्राम हेतु अपनी अपनी प्रेमास्पद रूपी सेज में प्रवेश के आन्दोलन लास्य रस को और सुरँग गम्भीर रस में भीगो देते है । भयभीत न हो सखी , रसिली वाणियां यहीं से श्वांस लेकर प्राणित हो प्रस्फुटित हो बहती है । जितना सेवा स्वर वह विभासिनियाँ बाँधती है उतना स्निग्ध सरस चुम्बित होता वह कर्ण में निवेदन निज वार्ता सा भीतर बाहर झूम पड़ता है । घन सघन रस वर्षण का सौन्दर्य हो या पुष्प जीवन का उत्स हो शरद रस शीतलता लिए कहीं न कहीं फिर ही रहा होता है । अनुभव करती चलो शीतलता का वह सँग जिसे खोज-खोज कर ऊष्ण वेला में पुकारा जाता है । रस लालसा में भले किसी ने शीतलता की मांग नहीं कि हो परन्तु लोक का साधारण शर्बत भी शीतल पेय होकर ही अपनी सुरभित सरसता का स्फुरण दे पाता है । श्रीप्रिया - श्रीप्रियतम का स्पर्श या श्रीप्रिया श्रृंगार स्पर्श सघन शीतल है और शीतलता की साधना ही शीतल वेला में शीतलता का स्नान है । स्पर्श लालसा है तो शीतल सँग के भय से स्वयं को मुक्त कर शरदीय कालिन्दी में रहने लगो । क्षणार्द्ध सँग को जीवनवत भरित न रख सकें तो नित्य प्रति प्रयास हो शरद स्पर्श का । बस आई हुई शीतलता के सँग को छूना है और जिन्हें यह सहज छू गई तो वें जेठ की दोपहर में भी शरद रजनी का संवाद सुन और गा सकेंगे । युगल तृषित । क्या ग्रीष्म वेला में कोमल शीतल फल - फूल नहीं प्रकट रहते ? प्राकृत लताएँ भी सरस् साधनाओं को कितनी दिव्यता से निभाती है कि पँखुड़ी-पँखुडी नवीन सुभगता सुन्दरता से श्रृंगारित होकर सेवावती होती है और तुम्हें भी तो लालसा है ... ...उत्स है कि केलि रँगीले सरस बिहारिणी-बिहारी की सेवा झरण होने का । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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