स्वार्थ प्रकरण , तृषित
*स्वार्थ प्रकरण*
1
स्वार्थ कौ रच्यौ सबहिं स्वांग जी
ढेला भलि ना पहिचानै चित्त विषयी इष्ट स्वार्थ माने जी
संचे खर्चे सबहिं व्यापार कौ मूल भोग स्वार्थ जाने जी
धरम करम सेवा साधना छाडहिं जीव स्वार्थ स्वांगे जी
रस रीति भीजै पद सेवन कौ साँचो स्वार्थ तृषित पावै जी
2
हित परहित कछु ना जानै , निज स्वार्थ रँग-रचना जीवन मानै
पुहुप झाडै विषय कीच डूबै भोग भजै स्वार्थ झाड फँसै जीवन मानै
जागै स्वार्थ , सोवै स्वार्थ तबहिं साँचो स्वार्थ भजन ना जीवन मानै
चलै सबहिं कौ कुचल संहारै आसन-मुकुट सब स्वार्थ जीवन मानै
मूढ़ ढोल अल्प स्वार्थ विज्ञानी स्वार्थ हेत निज चेतन बेचहिं जीवन मानै
तृषित अबहिं लोक भाव-रस-प्रीति का जानै , जोईं देहरी सजावै स्वार्थ देव निज मानै
3
सबहिं बिगाड़ी स्वार्थ सँग
रोग लग्यौ जोईं स्वार्थ कौ वैईं ना निरखै प्रेम देहरी कौ रँग
जीवन प्यासो भटकहिं फिरै जोईं न पीवै प्रेम सुधा कौ चँग
प्रेम को विलोम जैई कपूत स्वार्थ तजि भलि लिपटै अनिल अँग
सबहिं रोग छूटै , जै दाग न छिटकै आपहिं बुझावै प्राण दीपक एसौ कपटी सँग
4
प्रेम वल्ली सबहिं खोजै , मिलै ना प्रेम की एकहूँ पात
जीवन साँचो जीवै प्रेमी , जै प्रेम रह्वै नित दुर्लभ बात
प्रेम बैरी भीतर पालै , फिरै खोजै ना पहिचानै घाव-घात
प्रेम कौ फूल प्रकट नित साँचो , औझल कियौ जग रची स्वार्थ
पयोमृत बहावै काईं पीवै लहूँ कौ लहूँ लागै सगौ बैरी स्वार्थ
5
देवहूँ दुर्लभ स्वार्थ मुक्ति
भुक्ति मुक्ति सुं महंगौ वरद सुख , जै स्वार्थ मुक्ति
सूक्ति शक्ति सबहिं सुलभै , दुर्लभ ह्वै स्वार्थ मुक्ति
मुक्त साँचो जैईं , जैईं जीवत पायौ बैरी स्वार्थ मुक्ति
हा नाथ , देह वस्तु जीवन फँसाई थकी गिरी , दीजौ वर मिलै स्वार्थ मुक्ति
6
अबहिं स्वार्थ छिटक प्रथम मनवा , तबहिं हरि हूँ दर्शन कीजौ
रह्यौ बैरी सँग जबहिं , सहज प्रेम मिलन व्यापार करि दियौ
प्रेम मारग बलि-बलि भरयौ , सुख प्रीतम पिवाय कौ रस पीजौ
सुख देईवै खड़ी तृषित दासी लेईं लेईं हारी , स्वार्थ हारी हारी सर्व अर्थ हरि सुख भीजौ
7
दास कौ स्वार्थ स्वामी सेवा
स्वार्थ कौ पराक्रम आजहूँ भारी , भरि भरि रहूँ निज प्राणिनी सेवा
सेवा हूँ सुं मोहै स्वार्थ नाहिं , दीजौ वरद बनि सँवरि रहवै निज पद रति सेवा
अर्थ स्वार्थ सबहिं मेरे ललित अनुराग निज राधिकामाधव सेवा हूँ की सेवा
सबहिं कौ निज स्वार्थ लुभावै सुहावै मोहै भावै सुभावै महाभाविनी भावसेवा
8
हरि सँग सबहिं हरिदासन कौ रँग अलबेलौ स्वार्थ पायौ
औरहिं स्वार्थ सार रसार्थ मिटावै , दास सेवा कौ मेवा बहु सरस् पायौ
सबहिं वस्तु खेल उत्स श्रीहरि कौ , मानी जानी तेई प्रेमिल पंक पायौ
प्रफुल्ल पँकज ह्वै उत्स जीवन कौ , पद पंक पंक सुं रङ्गिलो पद्म पायौ
अबहिं तौ सेवा लोभ भरयौ तृषित हिय पद-पद सेवा कौ सुस्वप्न सजायौ
स्वप्नविलास हूँ सहज मनोहर रसिलौ रस भरयौ हिय पद्म लहरायौ
बलि बलि जाऊँ जैईं रति लुकाऊं , विचित्र सुख सेवा चिंतहिं खुबहिं झूमायौ
चन्दन-केसर घिसी-घिसी रमावै जोईं सघन अंग सँग सुख , निरालौ स्वार्थ सेवा कौ ही छायौ
9
साँचो स्वार्थ सेवक ही पायौ
स्वामी निरालौ रसिलौ, सेवा विपुल सघन , आश्रय-विषय सबहिं दिव्य पायौ
स्वार्थ कौ लोक स्वार्थ सँग रँग तरँग कौ लोभी , हानि भारी सब काचो स्वार्थ पायौ
सेवा फूल ही बनि के सौरभ द्रव्य उड़त ब्यार , रूप माधुरी रँग-सँग लिपट हरसायो
जैईं बात अलबेली रसिली मृदु बेलि अनुपम , स्वाद सबहिं कौ कहाँ आयो
लाचार भोगी रोगी तनु तू स्व सुं स्व कौ झारी ना पायौ , ए सेवक तू स्वार्थ गवायौ
10
आईं बैठी उड़ी गए बहु खग सबहिं स्वार्थ सँग छाएं
मैं सूखी झाड़ कंटीली नीरस , हाय बबूल फल कौन खाएं
जोईं ना तजि जे मेरे प्राण रमण बहु सुरँग फूल मणिन सुं झाड़ झाड़ सजाएं
साँचो सँग प्रीत ही राचै , घाव कौ घाव भरै जबहिं सरस् रसिलौ लिपटाएं
जगत खोजी सबहिं स्वार्थ कौ , तृषित मौजी नित जुगल गलबहियां सँग शीतलघन छाएं
11
कछु जोईं ना चाह्वै , सौईं तौ प्रेम चाह्वै
जौईं कछु चाह्वै , तोईं प्रेम कहाँ चाह्वै
प्रेम जौईं चाह्वै , तोईं प्रेम ही बरसावै
जौईं दैईं ना पावै , तोईं लेईं कहाँ पावै
दैईं दैईं जो दैईं जावै , दाता सोहि मैरो रमण कहावै
रमण सुं वहीं मिली पावै , दैईं दैईं जो सबहिं दैईं जावै
जै रस कौ पथ ढाल-कीच भरयौ ढहै ढहै जोईं ढह पावै
फिसलै ना नैना झारी कबहुँ , जै कहाँ स्वार्थ साँचै दरसायै
Comments
Post a Comment