अदृश्य कौलाहल , तृषित

*अदृश्य कौलाहल*

किसी भी रस लोलुप्त सहज पथिक को हमारे भावसेवा रूपी वाणीसेवा निवेदन प्रारम्भ में आश्चर्यचकित कर सकते है । फिर जब उनकी साम्य स्थितियाँ बन जाएगी , तो धीरे-धीरे वें स्वयं सुधारक होकर मेरे हेतु मार्ग प्रेरक भी बन गए है । यहाँ अभी भी छींटे भर की लेन देन बनी है , (अगर शंख भी श्रीहरि सेवा में है तो वह रस से रिक्त नहीं है , कुछ आर्त छींटे से वह स्वयं की सहज नित्य सँग माधुरी का निमज्जन प्रकट कर भी नहीं कर पाता हो और रिक्त होने से पूर्व ही रसाभरित हो उठता हो त्यों यह विचित्र सेवा पथ... ) कृपा वर्षा अतिव गहन और सघन उत्सवों में आच्छादित है । ग्रीष्म में ताप , सर्दी में शीतलता और वर्षा काल मे रस स्पर्श की अनुभूति साधनावत हो तब भी प्रीति के सहज अनुभव अतिव सुदूर है क्योंकि तपस्वी और प्रेमी में जीवन के स्वभाविक स्वरूप का भेद हो सकता है , सिद्ध तपस्वी स्वयं की अद्भुत दिव्यता को पा चुका होगा और सहज प्रेमी की सिद्धता उसके प्रेमास्पद के सुख में सहज प्रकट अनुभवित है , प्रेमी के जीवन का दर्शन उसके प्रेमास्पद के रस श्रृंगार से झलक सकता है । प्रेम की यात्रा के समस्त साधन या तप उत्सवित उन्माद होकर सहज साहचर्य में आबद्ध रस रँग है , प्रेम यात्री सहज ऐसे गलित मधुर शीतल तट पर है कि प्रतिकूल विकट स्थिति भी प्रेमी हृदय के भण्डारे में पोषण पाकर रुदित करुणित लौटती है । अर्थात् प्रेम यात्री अग्नि - भास्कर - चन्द्र तीनों विचित्र रसों का एक सँग आलिंगन कर सकता है और इन्हें एक थाल में रस देकर रस लें सकता है , प्रेमी इतना उन्मत्त हो सकता है कि विज्ञानी मानव आकृतियाँ केवल यहाँ आश्चर्यजनक सँग ही झेल सकते है । प्रेम की उत्सवित उन्मदता में प्राणी की असहजता वैसे थक सकती है जैसे कौलाहल से शिशु की इन्द्रियाँ विचलित होकर शयन खोज रही हो । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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