सम्पूर्ण रस रीति , तृषित
कोई भी रस रीति ऐसी नहीं जो निभृत रस न हो । सभी रस मार्ग सहज निभृत रस मार्गी है । कोई भी रस रीति मध्य में नहीं अटकती । बस उनकी विधि - सेवा - भावना विविधताओं विचित्रताओं से सजी है । गाँव मे भी ब्याह होता है और सम्पन्न धनी भी भव्य स्वाँग सँग विवाह रचता है , कुछ मूल मूल संस्कार समान होते है और कुछ भाव-साधन अनुरूप भिन्नता होती है ।
मीठा लड्डू भी है और हलुवा भी है और भी कितने ही पकवान है । सो भोग रस निवेदन की विधि रस रीति कथित है और सभी रस रीतियां सम्पूर्ण भोग सेवा निवेदन करती है । भावात्मक वैचित्री वैसे ही आवश्यक है जैसे भोग थाल में स्निग्ध घृत , क्षार रूप नमक या मधु रूप पकवान आदि सँग है । वैचित्री नवीनता की सहज सेवा रखती है । रस मार्ग की पड़ताल की अपेक्षा अपने सहज सेवात्मक स्वभाव को अनुभव करने की चेष्टा हो और इसके लिए ही सत्संग आदि सहायक है । यहाँ सहज शरणागत सभी साधनों का अपवाद है , मेरे इस जीवन के किसी क्षण से या तनिक से लेकर जीवन भर के सँग से भी यह सिद्ध नहीं हो सकता था कि क्या अतिव विपुल हुलास विलास सेवाओं से भरे ललित रँगमहल की ब्यार स्पर्श मात्र की समता भीतर है । नीरसता इतनी प्रकट रही है कि बाह्य जीवन में जीवन भर असंगता बनी रही है अर्थात् किसी को रस बनें तो मित्र आदि बनते न । परन्तु भीतर ललित कृपा से जो पथ प्राप्त हुआ और इतने उन्मादित पथ पर जो झूम बनी वह इतनी विचित्र है कि अपने ही भीतर की झूम की नवीनता और उत्सवों पर उत्सवित उन्माद समेटे नहीं बनते । बलिहारी हो , बलिहारी हो ,विपुल बिहारिणी सरस कृपा की । सो या तो शरण पक्की हो या निज तत्व का अनुभव सिद्ध हो जावें । रस पथों में नाप तोल मत कीजिये । युगल तृषित । श्रीहरिदास ।
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