ललित कैंकर्य , तृषित
*ललित कैंकर्य*
झरित सुमन कृपा वल्लरी सँग प्रफुल्ल होकर सहज है , सेवा मञ्जरियाँ ही नव-नव केशर कणिका सहज है ... त्यों सहज कैंकर्य लालसा की सिद्धि में सहज ललित रस है । इह लोक में तो केशर भी शुष्क मञ्जरी है परन्तु सरस् निकुँज रस में लवङ्ग भी ललित उत्सवित पुहुप है । प्रिया प्रियतम से सभी पुष्पों को नवीन सुरभ और स्वभाव - स्वरूप मिला है तो सभी पुष्पों के सार सौंदर्य वह स्वयं है और उनकी हाव भाव की नवीनताओं में उनकी उस नवीन हाव भाव के उत्स से प्रकट सेवा किंकरी शुष्क नहीं है , वह रस रँग में सहज भीगी है । किसी शीतल रस की सेविका के लिये वही शीतलता की केंद्र माधुरी है सो जो भी सेवा अभिसारित हुई है उसका ललित स्वरूप सहज पियप्यारी में नित्य उत्सवित है , यह किंकरियाँ तो उन अनन्त उत्सवों की छबियाँ है । और वह सभी उत्सव नित्य नव होने को आतुर अर्थात् ललित है । श्रीनिकुँज रस की तृषा भी जब पूर्ण उन्हीं की सुरभता में स्निग्ध हो उभय हो पड़ती है तो वह लालसा या व्याकुलता भी ललित हो कर प्रफुल्ल उत्स में ध्वनित हो रही होती है । यह ललिता या प्रफुल्लता का रँग सँग माँग से नहीं अपितु कृपा से भीगकर वपु हुआ हुआ है क्योंकि माँग या चाह में मञ्जरी ने निजता में अपनी केशर रूप की लालसा नहीं की है परन्तु यह छटा रची है ऐसी मधुर ललित नैन माधुरी ने कि जो लता - लता ही नहीं उसकी रोमावली रोमावली किशोरित अनुराग में श्रृंगारित हो रही है । और कुँवर किशोरी जू का यह नवल अनुराग समुद्र ही ललित वन्दित होकर श्रृंगार के रसिले मधु का सहज वर्षण बन झलकन हो उठता है ... कृपानिधि का यह मधुर वर्षण कुम्हलाया नहीं अपितु खिलता उत्स सुख सहज है और साधारण दशाओं को प्रवर्द्धित प्रफुल्ल निकुँज विलास का विस्तरण विचित्र लग रहा होता है । यह ललित कैंकर्य है , सेवा लालसा है परन्तु किसी चिकित्सालय की रोगी सेवा लालसा सी नहीं यह निकुँज सेवा लालसा । यह उत्सवों में उत्सवित उत्स श्रृंगारो की सेवाओं की ललित प्रफुल्ल लालसा है । युगल तृषित । जिन्होंने प्रफुल्लिका श्रीप्रिया का सँग पीया है वह पी सकेगें क्रमशः और ललित लोलुप्ति की मदिरा । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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