ललित आत्म शोधन , तृषित

आत्मशोधन लालसा दुल्ह-दुल्हिनी से ना कर उनकी नित्य सेविकाओं से हो । उनसे ही सब रस और सब भाव सिद्ध हो रहे , वहीं दे रहे है परन्तु सेवा पथ पर सहज सेविकाओं को वेदना बनती जब कोई अपना पात्र रानी जू को धोने को दे दे । धोएगी वही ही कृपा दृष्टि से परन्तु आत्म शोधन के निवेदन उनकी नित्य अलियों को बनें फिर वह नित्य अलि को किसी नई सेवा श्रृंगार में देख अपनी सहज कृपा कोर से नई सेवा को नयनों में भर लेगी और उनकी दृग छाया ही सहज शोधन है । 
जैसे महल में कोई पात्र अपवित्र हो तो उसे सेविकाएँ शुद्ध करती । रानी जू को यह नहीं करना होता ।  त्यों अपनी शुद्धता की लालसा सहज सेविकाओं के सँग में हो । प्रेम पथ पर द्रवित गलित होने के शोधन बहुत सहज रस वर्षण है , जैसे कोई पवित्र होना चाहे और बरसात हो जावें तो वस्त्र-देह की चिंता से बरसी कृपा में भीगते न बनेगा । और जो दशा अचानक बरसी वर्षा में सहज भीग गई हो वह तो सहज ही गीली हो चुकी ही है । यूँ ही प्रेम पथ का गलन बनेगा शीतलताओं तरलताओं को झेल कर । रस को झेलते झेलते दशा इतनी कोमल होगी  कि अपनी ही दशा की कोमलता का चिंतन भी कठोर लगेगा । जिसे वह नित नवीन कोमल अनुभवित हो वह स्वयं और कोमल होती दशा है । यह निवेदन एक दासी से है सो दासी का निवेदन है कि ललित सरकार नित्य ललिताईं में है जी , उन्हें समय लगेगा ...कितना पता ही नहीं जी पर कोई सेवा काज हो तो हम चाकर को कहिये । जो कोई नित्य अलि (भाव सिद्ध) आपके पीछे पड़ी हो तो वह सहज बिना चाहा निर्मलीकरण ही है । युगल तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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