रँग पिचकारी , युगल तृषित
*रँग पिचकारी*
ललित रँग श्रृंगारों का गीला (गलित) अँकन । प्रेम की कोपलें जब मधु वेला का कैशोर्य विलास खेलती हुई झरित होकर रस बन ढहती है तब अचानक रस की वह उरेख शुष्क जीवन पत्र को भर देती है रँग चित्रों से ।। सुरभित गोपन मदिरा की बिखेर का यह निराला कौतुक सभी कौतुकों का सिरमौर उत्सव ..जिसमें प्रेम अपने होने का आह्लाद उच्छलन खेल पाता हो ... अहा , यह प्रीति फूलों की अभिसार तूलिका का विनोद महोत्सव और ...वह कुँज के सर्व उल्लास में प्रकट हो आई इस धार से सुभगिनी बिहागिनी दुल्हिनी ...सुगोप्य रसिका माधुरी जू की कम्पित - स्पंदित सी रँगीत दशाएँ ।
पानी ही जिन्हें भीगो कर कम्पित कर सकता हो , वह कभी अनूठे प्रेम रस रँग की मार झेलेंगे तो अनुभव होगी कहीं कोई अलबेली पिचकारी । हाँ केवल प्रेम ही झारती ... पिचकारी । रँग की उरेखनि ...मेरे निज रँग की । मदिर सुरँग नयनों का भ्रूविलास ...जब घुमड़ कर बिखेर देता है , अपना रँग तब रस के वह वपु झेलते है कोई ... मधु पिचकारी ।
व्यवहार मण्डल में मनाए उत्सव की वह प्राकृत रँग की पिचकारी की धार , अलबेला उत्स लगी हो तो यह संकेत है कि हृदय में कहीं न कहीं आकुलित प्रेम सुमन है जो रस भरे जीवन में भीगे रहना चाहता है । यह पिचकारी का उत्स अपने इसी जल संग नित्य स्नान आदि पर नहीं बन सकता क्योंकि यह उत्स सरस गीला रँगीला प्रेम प्रहार है , प्रेमास्पद का ।। जीवन प्रेमास्पद से उसी के रँग - रस में सुसज्जित होना चाहता है , परन्तु जब प्रेमास्पद को अवसर ही न बनता हो दुल्हिनी के पाणिग्रहण का , प्राण श्रृंगारों के विपरीत होने के परस्पर प्रेमविलास को खेलने का , तो अचानक प्रेमी का सब स्वांग भीगा होता है ...रस रँग की गीली सी लकीर से और यह सन्मुख से आई सरसता का झोंटा या रस की तरँग या फूलों के मधु की बौछार या तूलिका का चित्रांकन सब प्रेम के गोप्य कौतुक को परिभाषित कर भी सदैव सुभगता में सामान्य से दिखते है ... परन्तु यह कृपा कटाक्ष रूपी पिचकारी भी प्रेम का एक पर्याय ही है जैसे हिण्डोला चन्द्रकला या सागर की लहरें है । सागर की अपनी मौज है कि उसकी कौनसी लहर कितने वेग से झूमा डाले पता नहीं और उन्हीं सेवा रति लहरों का आह्लाद ही सघन एकांकी होकर पिचकारी है और विपुल होकर वर्षा । कृपा कटाक्ष में भीगा गलित होता चित्त यह अनुभव रखता है कि यह पिचकारी एक बार कहीं एक और से नहीं अपितु नभ से घन होकर ढहती रहेंगी । और जिसने प्रेम की अनायास छुटी इस पिचकारी को झेला है ...उसे रस की फुहार हो या रँग बौछार अथवा जल वर्षा में ही भीगन ...यह सब पुलकित ही करते जाते है । यह पिचकारी (कृपा कटाक्ष) पुलकित करती ही है , प्रेम का कलह बड़ा विचित्र उमड़ता है कि अपने प्यार के रँग रस को अपने प्यार पर उड़ेलने का बाँवरापन ऐसा भीतर सँवार हो झूम रहा होता है ... जैसे प्रेम के व्यसन ने अन्य सत्ताओं को ध्वस्त कर दिया हो और विजयी होता यह प्यार को प्यार का रँगन । हाँ री , प्यार की रँगाई कभी व्यर्थ नहीं जाती ।। पानी की वह रँगाई तो छूट ही सकती है परन्तु जब यह पानी भी प्यार में भीगकर अपने प्यार को प्यार से रँगता है तो वह रँग उत्सव छूटता नहीं अपितु गहनोत्तर गहन होता जाता है और ऐसे प्यार की सहज मार निर्मल प्रेम के सरस हृदय में रस की अनन्त उत्स धाराओं की बाँध छूटने से उमड़ पड सकती है । प्रायः प्रेमी को भय रहता , अपने प्रेमास्पद के सँग से क्योंकि बड़ी ही कठिनता से प्रेमी ने अपने हृदय की मदिर झूम को थामा होता और उस झूम का कहीं छूट फिसल जाना बन ही गया तो हो गई री ... होरी ...हाँम्बे री होली । हिय से हिय की रँगाई । अपने रस की प्यार से रँगाई । लोक रँग कच्चा है और प्रेमी जानते है कि प्रेम रँग पक्का है सो वह अपने उन्माद की ब्यार को थाम कर रखते और अचानक उनके हिय की वही ब्यार सन्मुख से आकर गीला कर जाती ... तब रस रँग के सहज नित्य प्रार्थी पर यह पिचकारी वरदान ही तो है ... और पिचकारी सा ... वह प्रथम दृग आभरण । ... जैसे किसी किशोरी नायिका पर प्रेमास्पद द्वारा प्रथम रँग भरित पिचकारी का स्पर्श ... ऐसा ही गहन और मदिर प्रेम का स्पर्श गहनोत्तर गहन होता हुआ ... वह झँकन कभी पुराना नहीं होता और प्रेमास्पद ही प्रत्येक मुद्रा आदि भंगिमा हिय पर नई रँग रस की पिचकारी ही होती रहती और पिचकारी का प्रथम उत्सव शुष्क को सहज बन सकता कि वह अचानक भीगोकर कम्पित कर देती, हाँ ...इतना मधु ...इतना प्यार लेकर बिहरते वह कि मैं कहीं इन कुँज - कुँजन गलिन में रँग न जाऊँ री । गलित दशाओं को ही वह रँग गलियाँ ... अपनी लहरों की चोट की तरह सारँगित करती जाती है । सारँगाई में ध्वनित हुआ ... यह बंकिम लहराता लास्य प्रकम्पन जिसे वल्लित गतिमय नागरीनागर के कीर्तन में डुबो देता है ...वह दशाएं उपहार है , प्यार की इन पिचकारियों की । प्रेम का मदिरोत्सव मनाती ... यह रँग तुलिकाएँ ... सहज कृपा के झरणों से उछलती सी शिशिरता का स्मरांक । युगल तृषित । पिचकारी ना छुपी है और ना ही प्रगट हुई है तभी तो वह रँगती रहेगी अनायास कब - कहाँ ... मैं ना जानूं । ...होगी न वह । जयजय श्री श्यामाश्याम जी ।
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