भाषा कौतुक , तृषित

भाषा कौतुक
*श्री हरिवंश जी* 

भगवन मुझे ब्रज भाषा व निकुंजो के शब्द के अर्थ का सही ज्ञान नही है समझ कम आते है। जिससे पूरा लाभ नही मिल पाता। आप कहेंगे कि वणिया गाते सुनते रहिए अपने आप वाणियो के शब्द समझ मे आ जाएंगे लेकिन फिर भी दिक्कत आ रही है ब्रज भाषा समझने में। 
आपके लिए तो सहजता है लेकिन हम शुरुआत में ही है अभी यह वाणिया सुनना चालू किए है तो दूसरा क्या उपाय करें क्या कोई ब्रज भाषा सीखने हेतु डिक्शनरी है या कुछ उपाय हो तो बताइए।
पक्के होना चाहते है ब्रज भाषा मे ......???


उत्तर -- अनुभव की अपनी भाषा है , वह सहजतम सहज है और वहीं अनुभव तनिक अभिव्यक्त होकर भाषा हो रहा होता है । समझने के लिए उदाहरण है कि एक तो सहज मोर का नृत्य और एक उस नृत्य की नकल से भरा नृत्य । दोनों में अभिव्यक्ति रूपी कला कितनी ही प्रखर होंवें परन्तु शत प्रतिशत मयूर विलास का आन्दोलन नहीं हो सकेगा । 
अभी ही एक आंतरिक संवाद में मुझे उत्तर मिला कि वर्तमान में प्राप्त संस्कृतियाँ भी अब अपभ्रंश ही है , वैसे जगत भोगवाद के लिए जातियों को नहीं मानता परन्तु जातियाँ सभी तत्वों की होती है कला और भाषाओं की भी । यह बात लिखित या कथित किन्हीं को पीड़ित कर सकती है परन्तु लोक भाषाएँ क्रमशः विखण्डित होती गई है । जब भी किसी कला या भाषा या संस्कृति का प्रयोग प्रपञ्च या असत के लिए होता है तब वह अपना यौगिक स्वरूप झार केवल मायिक स्वरूप धारण कर लेती है । यह बात हम इसलिये कह रहे है कि नई प्रकाशित पुस्तकों से प्राच्य रस रीतियों को अनुभवित करना अब उतना सहज जब ही हो सकता है जब उनका सेवायत उद्देश्य ललित प्रवर्द्धन ही रहा हो ।  अगर किसी भी रचयिता का उद्देश्य क्षणिक भी भौतिकी है तो प्राप्त संस्पर्श नित्य सहज अप्रकट विलास की लिपियों को परिभाषित नहीं कर सकेगा । लालसा से समस्त रसों और कलाओं का मधुतम स्फुरण होता है जो कि सहज विशुद्ध उज्ज्वल बौद्धिक हो सकता है । जितने साधन किसी वस्तु या रस या भाव या अभिव्यक्ति के लिए बाहर ध्वनित या प्रकट है उससे अधिक उनका मौलिक स्वरूप सहजतम भीतर के जगत में है । कोई भी फल या फूल अपना विगत कुछ दशक पूर्व का ज्यों सहज आस्वादन नही दे रहा है त्यों ही कलात्मक या भाषागत जगत अपभृंशित हुआ है । अपभृंश सँग से मौलिक सहज ललित निर्मलता की ओर गति हो सकती है परन्तु इसके लिए यह ज्ञात हो कि प्राप्त झरित फूल की पँखुड़ी उत्सवित फूल कुँज नहीं है सो लालसा लगें , दूसरा उदाहरण जैसे किसी कला या वेद के एक शब्द से कोई उसका पूर्ण आस्वादन सँग करना चाहता हो और यह भी सम्भव ही है परन्तु इसके लिए भी लालसा ही महत् तत्व है , श्रृंगारों का अभिसार ही रज आश्रय है और रज के ललित आश्रय में वह ही रज श्रृंगार भी है अर्थात् सहज श्रृंगारों की झरण ही रज कणिका है त्यों ही किसी भी भाव-विज्ञान की रेणुका ही प्राप्य यहाँ है जबकि वह भाषा या कला या संस्कृति मौलिक सहज नित्योत्सव जीवन में सघन उत्सवित है ... कलाओं की नित-नित झरती कनकता की अभिव्यक्ति अगर यहाँ स्पर्शित है तो इन्हीं कलाओं की नित-नित उत्सवित कुंजेश्वरी सुरभता इन कलाओं का अनुभव साम्राज्य है अर्थात् जहाँ कोई कला या कृति स्वयं को पूर्ण उत्सवित जीवन्त पाती हो और वही अनुभव श्रीललितदम्पति से झरित निर्मल अभिव्यक्ति भी है  । अर्थात् संस्कृत का भी लौकिक प्रयोग उसे वाद विवाद या तर्क के शब्दों से भर उसके भीतर के पुष्प वर्षणा को अप्रकट करेगा त्यों वह ही संस्कृत शिव-पार्वती संवाद या किन्हीं दिव्य सिद्ध आह्लादिक रसिक द्वारा स्तुति होकर मधुरित और सुरभित विलास में प्रकाशित रह्वेगी । सामान्य जन को स्थूलत्व की सघन आवश्यकता है कि आंतिरक चेतन जीवन अर्थात् अध्यात्म के भावित जीवन को भी  मात्र बाहरी प्रपञ्च से प्रपञ्च तक प्राप्त करना चाहता है । 
निश्चित सरलतम उपाय है रसिक प्रदत वाणियों के अनुसरण से भाषा का भीतर पूर्णिमा रचता मधुर प्रकाश । भाव पथिक को सर्व प्रथम अनिवार्यतः चेतना के कृष्ण पक्ष से शुक्ल पक्ष पर आकर यात्रा करनी होगी और शुक्ल पक्ष की यात्रा ही रीति का बीज आरोपण है , चेतना जब कृष्ण पक्ष की यात्रा करती है सोम रस नहीं पी पाती क्योंकि उसका अहम् तत्व अशुद्ध है जो कि विशुद्ध भोक्ता है ही नहीं । जबकि शुक्ल पक्ष की भाव यात्रा प्रकट ही तब होती है जब भावुक यह समझ लें कि उसे केवल भाव लता को संभालना है और वह भाव बिन्दु या बीज श्रीहरि-गुरु इच्छा अभिसार से उत्सवित है । मैं को कदापि पूर्ण सँग मिलता ही नहीं और जिसे मिलता है वह उनके सुख में शरदित प्रकम्पित उनके द्वारा उत्सवित उनकी सुख लता है । सो श्रीराधामाधव का भीतर उत्सवित संवाद या रसिक वाणी में उसका प्रकाश ही वह स्पर्श है जो मौलिक भाषा को अनुभव दे सकती है ,  शेष विकल्प विश्व विद्यालय के कुलपति होने तक स्थगित है । क्या कोई विज्ञ-कुलपति कोकिला मयूर के संवाद को लिपि बद्ध कर सकते है ... !  
परन्तु सौभाग्य मानिये कि ऐसे शास्त्र हमें प्राप्त है जो अन्तस् को श्रीधाम से अभिन्न कर सकते है । युगल तृषित ।  पँकिल को पंकज की यात्रा हो रही तो वह अनुभव साम्राज्य की भाष्यगोचरता में स्निग्ध है । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । वर्तमान प्रपञ्च परिवेश में पदार्थ और तत्व क्षुद्रता पर है भक्ति से विभक्त भोग मात्र होते रहने से । भक्ति ही पदार्थ और तत्व की अपनी सहजता की मधुर रस यात्रा है और भक्ति शेष पदार्थ या तत्व ही जातिगत अभिसार है ...

*भाषा कौतुक* भाग 2

श्रीहरि विलास हेत ही सभी तत्व अँगरागित परिमलित मधुरित सार तत्व हो पुष्ट होकर ही विलास पुष्टि सेवा रचते है । 
सेवा मण्डल अथवा परमार्थ मण्डल से छुटने पर जीव और तत्व निःसार हो संसृत गति प्राप्त करते है , ज्यों फल फूल में निहित जीवाणु उनके मधुरता और सौन्दर्यता के कारक है त्यों ही वही जीवाणु उन्हीं फल फूल के दूषण मल के भी कारक है अर्थात् माया को दोष देना उचित नहीं है वह सहज मार्गी के लिए सहायक भी हो सकती है , बस उसे जीवन से रस देना आ सकें तो सामान्य पदार्थ भी सविशेष होकर दिव्यतम सेवाएँ होने लगते है  । 
श्रीब्रज भाषा में सहज साहचर्य शैली है वहाँ वाक्य या संवाद पुरुषाकार नहीं होता है ब्रज भाषा का ललित उत्सव अनुभव करने हेतु प्रथम लीला सौन्दर्य में सारँगाई स्पष्ट होना आवश्यक है क्योंकि वह लहराती - झूमती वलय भरती मधु बोली है । वहाँ एक-एक अक्षर वल्लित है अर्थात् दो लताएं जैसे लिपटी होती त्यों वहाँ अक्षर से अक्षर और शब्द से शब्द और वाक्य से वाक्य का विलसित बिहार है । 
इस भाव के पूर्व भाव हमारा यही प्रयास रहा कि वास्तविक सौन्दर्य जिसे ललित कहा जाता वह श्रीसरकार की मधु सेवा में ही संवर्द्धित होता है । श्रीलाल जू जो छाछ समझते है वह लौकिक माखन से अधिक स्निग्ध और पौष्टिक है त्यों निकुँज के पथिक को बहुत अधिक बाह्य आस्वादन रट कर आगे नहीं बढ़ना चाहिये क्योंकि असहजता से सहजता के विकास के लिए सहज लालसा है ही तो असहजता से असङ्गित होकर सहजता के ही सहज सँग की लालसा में भावित रहना चाहिये । प्राप्त श्रृंगारों से सरसता प्राप्त करने हेतु सहज भक्तिमय सेवक होना चाहिये क्योंकि केवल भक्ति ही किसी भी पदार्थ को सुरभित मधुरित सरस निहार रही होती है क्योंकि सहज भक्त को सदैव प्रेमास्पद श्रीप्राण सरकार के सुखों की उत्सव सेवाएँ ही आन्दोलित कर रही होती है । युगल तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । प्रेमास्पद का सुख ही जब आत्मसुख हो रमण करता हो भीतर , तो सहज शीतल सेवा ही निसृत रहती , भाषागत नामावलियाँ तो बस मज्जित हो निहारती उन पुलकित रोमावलियों को , जो ललित सरोवरों में विगलित होती , घनित होकर जा सजती रस समाधि का रँग बिन्दु होकर ....

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