सरलता और मेरे जै जै
बहुत से प्रेमी - भक्त - ज्ञानी प्रभु को जानना
चाहते है |
प्रभु कैसे है ... ऐसा विचार करते है | प्रभु निर्गुण भी है
सगुण भी | किसी भी पल वें निर्गुणता प्रगट कर
सकते है ... और सगुणता भी या दोनों भी |
सर्वसमर्थ हो कर भी बडे दया सिन्धु है , किन्चित्
भाव से ही प्रभुता विस्मृत कर जाते है ...
ईश्वर कैसे भी रहे कण-कण में व्याप्त
या प्रेमियों हेतु थिर -स्थिर | या लीलामय | वें
एक भाव छोड नहीं पाते | वो है सरलता | इतना
सारल्य बहता है उनमें कि ज्ञात होने लगे तो
अश्रु बहते रहे और वहाँ भी जै जै किसी रुप में
आपको सम्भाल रहे हो |
मैंनें पाया बहुत से प्यासे ओर जिज्ञासु और कुछ
वें भी जो आधुनिकता में व्यस्त है पर किंचित्
क्षण परम् शक्ति से अनुभुत हुये है | मानते है कि
कोई तो है जो सारे सिस्टम पर कमांड रखता है ...
डेस्कटाप है तो सी पी यु , मदरबोर्ड , प्रोसेसर सब
होगा ... क्या वो प्रोसेसर है | ... यें विचार कर
निकल पडते है उस सुपर प्रोसेसर को तलशने
जिसका ग़जब का सिस्टम है | यहाँ से ही गलती हो
जाती है ... वें केवल प्रोसेसर नहीं , वें सीपीयु भी
नहीं ना ही स्क्रीन ... आप की पूरी डेस्क वहीं है |
वहाँ जो सब कुछ है वो सब कुछ ... और इनमें
बहता अदृश्य प्रवाह भी विद्युत् प्रवाह भी |
जो इनका जीवन है ... प्राण है |
कहीं जीव तो कहीं आत्मा की बात होती है ...
बात होनी चाहिये जीवात्मा की |
वस्तुत: मानव जब भी कुछ नया खोज रहा हो
तो वहाँ ईश्वर का पुर्ण सहयोग है |
उनकी प्रकृति प्रवाह की है | वहीं से प्रकृति विद्युत
में प्रवाहित है |
ईश्वर को जानना हो तो प्रकृति को जानें ...
कारण जानें | अकारण कुछ भी नहीं | प्रकृति
की उन्मादिता को अनुभुत करें | उसके प्रयास को
समझें ... परिवर्तन को समझें |
वैसे ईश्वर जानने का नहीं मानने का विषय है |
जानने से सहज भाव नहीं हो पाते , कुछ संदेह
मन में पलता है | पहले मान लो ... इनके हो जाओ
तो सब जान जाना आसान् होता है | जब व्यक्ति
किसी को जानना चाहे तो वहीं पहलु जान पाता है
जो सामने है , मानना चाहे तो हर हरकत का पुर्व-
अनुमान तक लगा लिया जाता है |
सब जानना चाहते है फिर मानना ... यें कुछ वैसा
है जैसे चिंटीं तिनके पर बैठ पूरे महासागर को देखना
चाहती हो | जब तक सागर चाहेगा तिनका रहेगा |
उतना ही चींटी जान पायेगी | जितना जानेगी उतना
कह नहीं पायेगी ... जितना कहेगी उतना लिखा नहीं
जायेगा | जितना लिखा उतना पढा नहीं जा सकेगा |
जितना पढा उतना समझ ना आयेगा | और विराट
सागर छोटा होता जायेगा |
इस विराटता को जाना नहीं जा सकता ऐसा नहीं
पर जान कर उतना कहा नहीं जा सकता |
उनकी शर्त ही यहीं है ... मिलु तो सब भुल जाना |
वें जितने विराट है उतने ही सुक्ष्मातीत ...
जिस तरह विद्युत कई मेगावाट से क्षण भर
में 0 वाट तक हो जाती है |
चलिये सरलता की बात करें ... विराट ... जिसके
कोटी ब्रह्माण्ड हो | जिसकी सृष्टी हो वें इतने सरल
कैसे ? आश्चर्य है !!
पर सरल तो है वें ... कोई भी मानव सरल होना
चाहे या सरलता प्रगट करें तो कमेंट आता है ...
तुम क्या भगवान हो ? सरल होने पर मित्रजन
को लगता है कि देखो भगवान हो रहा है ...
अर्थात् सब जानते है कि वें सरलतम् है | हृदय
से ना भजने वाले भी जानते है वें सरल है ...
जो व्यक्ति जितना सरल होगा वह उतना ही
ईश्वर के समीप , सरलता ईश्वर का विषय है जैसे
मनुष्य अहंकार के एक कण को तो पाले ही रखता
है | वैसे प्रभु जी कितने ही प्रभुत्व दिखायें पर है वें
सरल ... सरलता उनका सच है | वें ऐसे है नहीं
जैसे प्रतित होते है , जैसा मानव विचारता है , डर
जाता है उनके आगे | उनकी नज़र से देखो तो वें
कहते है कि मैं खडा ही इन सबके दर्शन को हूँ |
विचार करने पर लगता भी है सही दर्शन तो वें ही
किये है बिन पलक तक झपके | एक टक देखते
प्रभु जी के भाव को समझा जायें तो रोकने पर
भी आत्मा वहीं रो देती है | ध्यान से देखने पर लगता
है उनका प्रेम बहुत गहरा है , बडा महान् | एक विग्रह
होकर भी सबके मानस में नित् नव व्यापक सबके
लिये ... जो जैसा भजा वैसा स्वरुप !
जै जै स्थिर है नहीं ... वें तो व्यापक है , सर्वत्र है |
ब्रह्माण्ड में भी और ब्रह्माण्ड के विपरित भी तो वें
विग्रह क्युं होते है | संतों हेतु , दर्शन होने पर जिसने कहा
प्रभु ठहरो तो वें ठहरे भी ऐसे कि लाख कोशिशों पर
भी जब तक कहने वाले ना कहे ..प्रभु अब चलें
तब तक ठहरे ही रहेंगे | संत तो उनमें समा ही गये
पर वें ठहरे रहे | आप विचार करें ईश्वर कैसे
करुणामय है | मैं रसिक संतों की बात कर रहा हूँ ,
जिनके लिये प्रभु विग्रह हुये और आज हम लघु जीव
भी किंचित् छोटे प्रयास में प्रतिष्ठा मात्र से उन्हें
थिर कर ही लेते है | इसमें हमारा प्रयास कम उनकी
सरलता बहुत है ... बुलाया और आ गये | मैं तो
विचार करता हूँ ... इतनी सरलता से आ जाते हो
बुलाऊं ही ना ... मेरी लघुता प्रभु हेतु नहीं | वें स्वयं
को भुला देते हो मैं कैसे बिसरु मेरे तो सब कुछ
वहीं है ... मेरे कुछ दम्भ के भाव से ही प्रभुजी
आते है ... तो मेरा प्रयास नहीं , उनकी करुणता ,
उनकी सरलता | सुनने मैं आता है वें आते नहीं ,
भाव नहीं होते | भाव बनाओ | मेरी तो विनति है
आपके हेतु वें नहीं आते तो आप महान् है जब
आये है तो पता चलता है कि कि हम प्रभु के लिये
उतने योग्य नहीं , वें सरल हो जायेंगें , आप जैसी
सेवा किये उसमें राजी | पर यें तो उनकी सरलता है
जब तक भाव नहीं कुछ यथेष्ठ नहीं कि उन्हें इतना
ना पिघलना पडे , भांति भांति के व्यञ्जन पाने वाले
के लिये हम क्या करें बना भी लें तो भाव कहाँ से
पुरसे |
सब कहते है हम उन्हें बुलाना चाहते है ...
ना जी ना सोचें वें आ जाते है , प्रेम हो तो
ना ही बुलायें , आप चाहते ईश्वर आपकी झुठी
पातल उठायें , आपकी सेवा करें नहीं ना ...
तो ना ही आयें वें | प्रभुजी सेवा करने नहीं देते ,
उनके कौतुक समझ सकें तो आप पायेंगे कि
किस सरल रुप में आयें है ... वें सेवा कराने नहीं
सेवा करने आते है | दम्भ है तो भा जायेंगा , पर
प्रेम है तो सहा नहीं जायेगा | भगवान को बुलाना
कठिन विषय नहीं ... उनके आने पर उन्हें भगवान
रहने देना कठिन है , उन्हें जो करना है कर ही
जायेंगें
एक उदाहरण देखे ... सब को लगता है प्रभु जी
अर्जुन को कहे सर्वधर्मान् परितज्य ...
सब धर्म का त्याग कर मेरी शरण में आ जाओ |
समर्पण को कहें | गहराई से विचार करियें ...
प्रभु जी स्वयं पहले समर्पित हुये है ... सेवक है
वें अर्जुन के , सारथी | अपने धर्म त्याग दियें ...
अपना प्रभुत्व त्याग दिये तब कहें है युं ही नहीं
कहें | ... एक - एक लीला के एक - एक पहलु
पर गहराई से विचारें सरलता ही सरलता दिखेगी |
संसार में भी जहाँ सरलता मिली लगता है
कि जैसे इन्होंनें उस पारस को छुआ हो | ...
संत - रसिक जब पारस को छु जाते है तो ग़जब
की सरलता और ईश्वर उनमें से बहने लगता है |
सब की हाँ में हाँ और ना में ना | तथास्तु | जैसा तुम
चाहो ... मुझे तो यहाँ भी सहा नहीं चाहता , आप भी
तो कुछ चाहिये ना ... तथास्तु ... जब व्यक्ति तेरी
रज़ा में राज़ी नहीं , तो आप क्यों हो जाते हो हर
बार | ऐसे ही उनको छुये संत यहाँ तक की सही गलत , हित - अनहित की भी विस्मृति हो जाती है |
केवल कृपा ही सर्वत्र बहती मिलती है |
और सच भी है ...पारस आप को छु जाये आपके
गुण लोह से स्वर्णके हो जाये तो सब कमाल पारस
का | कहाँ लोहा जंजीरे बना होता वहीं आभुषण
हो गया | जो यें परिवर्तन समझ जायें उसे सर्वत्र
कृपा ही मिलेगी |
उनकी सरलता प्रगट हो यें भी वें नहीं चाहते ...
वें कितने उदार है ... कि जिसने प्रार्थना की और
जिसने उन्हें कोसा ... अपशब्द कहें | वें भेद ना
कर पायें | आज कोई कहें कि ईश्वर नहीं है ...
तो वें कहते है हाँ मैं नहीं हूँ लो मैं प्रमाणित करु,
कि मैं नहीं हूँ ... और सिद्ध कर देते है लो मैं नहीं हूँ |
मैं कहता हूँ क्यों करते हो ऐसा आप ... जो आपके
विपरित है उसके भी साथ ... उसका भी सहयोग |
कोई जवाब नहीं ... तो ना दिखा करो युं कि सहा
ना जा सके | उसे लगा कि उसने सिद्ध किया आप
नहीं हो ... पर मैंने देखा आप वहाँ थे |
कोई जवाब नहीं ...
इतनी सरलता ... अब क्या कहूं आपको ! हर सुत्र
सिद्ध कर देते हो | जानता हूं आप सत्य हो केवल
तो भी कठिन है आप को कह पाना … सब नश्वर
है आपके अलावा | तो भी नश्वर ... शाश्वत् नहीं
देख पा रहा |
कोई माने या ना माने पर जो सब कुछ माने वें
ईश्वर है |
प्रेमी को तो सिद्ध करना होता है कि मैं प्रेम नहीं
करता | हाँ हुई कि ईश्वर पग पग पर आपके मार्ग
बुहारने लगते है , सामान्य भक्त बडा प्रसन्न होता
है कि देखों भगवान् प्रेम में क्या क्या करते है ?
पर कुछ ऐसे भी है जो देख नहीं सकते ...
उनकी सरलता | प्रेमी को कुछ नहीं चाहिये तो
भी नित्य नये नये कौतुक नित नये नये काज करते
ईश्वर ! हाय ! सोंवे तो वहीं , आँखें खुले तो भी वहीं
बैठे मिले ! हदें पार कर दें ! मन विचारें मैं इनका दास
हूं पर मेरी तो दासता भी फिकी रह गई ...
रुप भी ऐसे लेते है कि तीसरे किसी को क्या कहें
कि यें भगवान थे भाई जो अभी बर्तन धो रहे थे |
बडी विकट स्थिति हो जाती है | अब जै जै ने सोच
लिया कि पग दबाऊं तो कोई उपक्रम नहीं कि ना
दबाने दें ! कोई सा भी रुप लें लेगें ! वो विचारे पग
छु लुं तो कैसे रोकें ... पागल ही बन लोटने लगेंगें |
जै जै की हरकतें रसिक जानते है |
सो कह नहीं सकते , हाल ऐसा रखते है कि कोई
पग क्या मुख ना देखें ... पर जै जै तो जैजै है ...
सोच लिये करना है तो करना है | ...
अब प्रेमी भी जानता है ... कि केवल प्रेमियों के
आगे इनके मन की होती है | वरन् जग इनकी सुनता
कहाँ है ... सब पहले सोच के जाते है आज क्या
मांगना है ! क्या शिकायत करनी है ! क्या अर्जी
लगानी है ... कोई नहीं सुनता-समझता |
अब प्रेमी इनकी सुनते है तो पता चलता है कि जै
जै तो तैयार बैठे है अपनी विराटता अपना प्रभुत्व
भुलाने को ... अब किससे कहें कि जिनके आगे
संसार झुका है ... वो कितना झुकता है ... थोडा
सा अहम् , हसरतें भुला जानो इन्हें कितने सरल है |
प्रेमी को कोई दु:ख नहीं सिवाय इनकी सरलता |
कृष्ण सुख का भाव है राधा जु और गोपीयों में
अब कृष्ण चाहे गोपी प्रसन्न रहें ... तो गोपी प्रसन्न
रहेगी | कृष्ण चाहे विरह में भी रुदन ना हो तो नहीं
होगा | कृष्ण चाहे श्री जु चरण सेवा तो श्री जु कृष्ण
सुख हेतु ना नहीं कर सकती | सेवा कराने में सुख नहीं हो रहा ... कृष्ण के सुख में सुख मिल रहा है |
पर यहीं सुख होता है जै जै का ...
पत्ता जब तक जुडा है तो लाख उडना चाहे उड नहीं
पाता | पर जैसे ही छुटा हवायें बहा लें जाती है ...
हवायें सदा चली है ... पत्ते का हल्का सा जुडाव
उसे उडने नहीं देता ... हसरतें उसकी सदा ही
बह जाने की रही है ... सो कुछ टुटे भीतर से ,
अहम् त्यागें | तब देंखें ... कौन टुटता है ...
प्रेमी -भक्त या प्रभु जी | मेरे जै जै ... राधे - राधे
जी ... उनका और आपका तृषित | सत्यजीत "तृषित"
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