प्रयास कैसा करें
प्रयास कैसा करें
मुझसे कई तरह के सवाल होनें लगें है |
चुंकि मैं पुर्णत: असमर्थ
हूँ | परन्तु जवाब देना चाहता हूँ ..
भले जवाब मेरे हृदय से ना हो ...
बहुत बार हृदय की कहने पर
सामने वाले व्यथित होते है | ...
उनसे कई बार कहता हूँ कि क्युं
करा रहे है युं आप ... वें कहते है
अगली बार ना करना तब देखना |
परिणाम आया क्रिया पर प्रतिक्रिया
ना देने से दोनों ओर के अहंकार भाव में
वृद्धि होती है |
हे नाथ ! कठपुतली हूँ ! आप जो करो
सही ! सवाल नहीं उठने चाहिये !
अपने जीवन अभिनय को पूर्ण सहजता से
सम्पादित करने का भगवन् कृपा से ही सम्भव
है
प्रश्न कर्ता जब किसी जिज्ञासा को
रखते है तो कई कारण होते है |
जैसे ... जानकर भी पुछकर परीक्षा
लेना , यें अहंकार जनित है |
किसी और की जिज्ञासा ...
या स्वयं की चेतना में उठी व्यथा |
प्रश्न कर्ता हर स्थिति में गहरी खोज
कर के ही पुछता है | कई बार उनकी
सीमा होती है | उससे अधिक
जो वें तय कर रखें है वें अस्वीकार ही
करते है | कई बार वें पुछकर भी
जानना नहीं चाहते | प्रश्न को बनायें
रखते है | जवानी से बुढापे तक वहीं
प्रश्न |
जब कोई पुछता है कि प्रभु के लिये
क्या करुं ? तो प्रथम तो मैं कुपात्र हूँ |
यें तो सद्गुरु आदेश करें वही उचित है
, दूसरा यें मेरे लिये कुछ ना कहने की
बात होती है , यहाँ मैं जानता हूँ कि
संतुष्ट नहीं कर पाऊगाँ |
मेरा व्यक्तिगत उत्तर जो भीतर बनता
है वो यें है कि तुम कुछ ना करो |
तुम्हारा कुछ करना यानि तुम्हारा होना |
सब उनसे है ... सारे कर्म |
वहीं कर्ता है वहीं कर्म वही कर्मफल |
उनके ही कथन के विपरित जा कर
कुछ कर सको तो कर लो |
उन्हें करने दो , तुम दृष्टा हो जाओ |
अपने भीतर उन्हें अनुभुत करो |
कि वहीं कर रहे है ...बातें करो हर व़क़्त
उनसे , क्युंकि आपके द्वारा जो
हो वहीं करेंगें | तो आप खाली ना रहो ...
दृष्टा रहो , संवाद करो | सेवा करो | सेवा
भीतर ज्यादा हो | बाहर अगर हाथ जोड
रहे हो तो आत्मा को उनके
पग दबाने में लगा दो वहीं ठहर जाओ
पैरों पर | दिखने में लगेगा कि
केवल हाथ जोडे पर मन की सेवा इतना
भर देगी कि अहा | थिरता बढने
लगेगी |
जीवन की हर क्रिया पूजा है , आत्मा
करें तो | कर्ता प्रभु हो तो |
परन्तु नाम धारी जीव स्वयं करना
चाहता है | मैं नहीं हटता | वो कहता
है मैं क्युं ना करुं | मैं को पता है कब
खुद को जोडना है कब हटाना है |
कुछ भी चार आने का पुण्य हो तो
मैं खडा हो जाता है |
कभी कुछ पाप या अपराध हो तो
हर किसी को गीता याद आती है ...
जी हम कहाँ कुछ करते है , सब वो
कराता है |
पुण्य आप करते है ...
पाप तो भई हम करते ही नहीं , बस
हो जाते है |
यें भक्त नहीं , जो दोषारोपण करें वो
बनावट है | उसे प्रभु से लेना देना है | प्रेम नहीं |
मेरे नेत्र मन्दिर के बाहर गरीब याचक
को जम कर मारने वाले को मन्दिर
में श्री विग्रह के आगे गिडगिडाते देखते
है तो मन होता है कि इन्हें कह दूँ
कि भाई जी अभी जिसे बाहर अकारण
आप अपनी प्रबलता और भय दिखा
रहे थे उनमें मैंनें श्री सरकार के दर्शन
कियें है | आप जी भर कर इन्हें
पीट चुके है | और अब आप अभिनय
भी बढिया कर रहे है | अब आप पुण्य ऐसा
करेंगें कि मेरे भगवान सालों तक आप के
नाम की तख्ती पर खडे रहेगें | ...
क्या आप इनसे मिलेंगें ... ऐसे भक्त
मिलना नहीं चाहते | भगवान जस्ट
लाईक मॉर्निंग टी | बस |
तो आप क्या करोंगें ... क्या बेस्ट है |
सेवा , मन की दिखती नहीं तो लाखों
रुपये की सेवा | या जप ... पल भर
सच्ची याद आती है तो जप क्युं |
आप कहेंगें ऐसा क्युं कहा ... भई
आप उनके साथ जियें उनसे बातें करें
देखे कि वें क्या - क्या ख़्याल करते है
इसमें रस है | उन्हें दिखाने में नहीं की
मैं तुम्हें अपने तप से हरा ही दूगाँ |
जब यादें हो बातें हो तो जप सच्चा ना
होगा ... चस्का छडाना हो तो बडा चढाओ |
हाँ जप जब करें जब सांसे भौतिकता में
बहने लगें , जब परिवेश स्थान प्रतिकुल हो |
जहाँ उनकी बातें ही ना हो और आपका द़म
घुटने लगें |
वैसे सच कहूं एक बार उनके हो कर देखिये
कुछ चढाना है तो जीवन चढा दिजिये | तब
रस मिलेगा | सच्चा सुख मिलेगा | अटुट आनन्द
आपमें होगा | ऐसा की भौतिकता की विकट
स्थिति में आपको कहना होगा कि भाई जी
दु:ख का समय है और मैं रो भी नहीं पा रहा |
हरि के भीतर का आनन्द आपकी सारी समस्या
पी जायेगा |
मैं अधिकतर एकांत में रहता हूँ , जब मुझे समुह
में होना होता है तो मुझे अजीब लगता है | कहीं
चलें जाओ अनवरत हरि चर्चा होती ही नहीं ...
फिर समुह में रहकर मै अलग हो जाता हूँ |
या तो वें थक जाते है ... या मैं | सरकार
मेरी बात मान जाते है कि बातें और आनन्द
अनुभुति के लिये एकांत सही है | बस तब
कृपावर्षा |
हर कार्य को स्वयं से जोडने वाले हम
कहते है ... मैं सांसे ले रहा हूँ | कहाँ से
यें अभी वाली कहाँ से लाये ...
यें नहीं कहा जाता प्रभु कृपा कर रहे है
वें दे रहे है ... मैं लेता तो लेता ही ना जाता
सांसे लेना वाला क्युं लेना छोडता है ...
लेता जाये ...
मिल रही है , दी जा रही है | निश्चित् है
हम गंवाते जा रहे है | जितनी है वहीं तक
मिलेगी |
जब सांसों पर हमारा जोर नहीं तो प्रयास
क्युं ? ईश्वर का प्रयास सच्चा है ... होने दें |
इस साधना को अचाह और अप्रयत्न रूपी प्रेम
साधना कहते है । गौर करें प्रयत्न सरल है ,
अप्रयत्न दुष्कर । कारण स्व पर निष्ठा है । अपने
प्रियतम् पर नही । शरणागत का कोई कर्म नही ।
दास का प्रत्येक कर्म सेवा है । और शरणागत -
समर्पित को तन मन से की सेवा से भी तुष्टि नही मिलती । व्याकुलता -अधीरता - तृषा नित्य वृद्धिमय
होती रहती है । प्रेमरस नित्य नव रूपेण वर्धमान है ।
प्रेम है तो बढ़ेगा । कम होने का सवाल ही नही।
इतना ज्ञात रहे जै जै को प्रेम है --- गहरा प्रेम
और वो कभी तन्हा छोड़ने को भी राजी नही । सदा
संग है । प्रेम के प्रयास की दरकार नही । उन्हें प्रेम है
बस जान लिया जावे ।। और उनका प्रेम ही उन्हें हममे घुला गया , प्रेम में किसी को एक होना था वें हो चुके है । हमारा होना उनका हममें होना ही तो है । हमारी तृषा बढ़ी तो हम उनमें होंगे , उसी भावना से जैसी चाह उठी , प्यास लगी । और कोई चाह नहीं तो उनकी ही चाहते इस और से अंकुरित होने लगेगी ।।
कटुता के लिए क्षमा करियेगा , , !! सत्यजीत तृषित !! whatsapp number 89 55 878930
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