वार्ता प्रभु से की कर्म पर 18 11 2015
और स्व को भी परिवर्तन नही करना । स्व का बोध भर करना है । धूल भर हटानी है । नहाने का अभिनय नही । पूर्ण सच्चा स्नान करना है बस
भजन सुनने से विश्वपरिवर्तन नही हो सकता। जीवन को भजन बनाने से होगा । वाह से नही हृदय की आत्मबोध में निकली आह से कुछ होगा
अहंकार की निवृति के लिए हारना अनिवार्य है । सम्पूर्ण जगत में विजय केवल हरि की है । जीव सोचे की जीत गया तो कल हार जायेगा।
विवेकानंद विश्व में आध्यात्म स्थापन कर सकते थे। परन्तु स्व बोध । ईश्वर अनुभूति । गुरुआशीष होने पर भी विश्व उस महाविभूति को जीवन्त न कर पाया कारण -- युग परिवर्तन के लिए आत्म शुद्धि अनिवार्य है ।बाहर ईश्वर भी खड़े हो और हम अंदर का मैल न हटाना चाहे तो कुछ नही होगा
ईश्वर की वेणु नाद नित्य है। परन्तु सुनता वहीँ है जिसे वे सुनना चाहे । वे चाहते तो केवल वेणु के प्रभाव से कंस गोपी बन सकता था । परन्तु कंस ने उस नाद की अभीप्सा ही न की। न सुन पाया। गौ गोपी ने नाद सुना । आज भी किसी भी गौ में कुछ अज्ञात के श्रवण की अनुभूति होती ही है
अध्यात्म और कोई धर्म के नाम पर चलती संस्था में पूर्ण विपरीतता है ।
आध्यात्मिक दृष्टीकोण के लिए , केवल आत्म अनुसरण करे । किन्हीं साम्यवादी कथनो का नही ।
मैंने कथितभक्तो के परिवार देखे ।
नेताओ के देखे । देशभक्तो के देखे ।
हिंदी के प्रोफेसर्स अपने बच्चों को हिंदी के आसपास नही फटकने देते
। fb पर कई हिंदी के रचनाकार है । जिनका सामाजिक जीवन भारतीय और व्यक्तिगत पश्चिमी । क्यों ?? अपितु वे किसी अन्य को पाश्चात्य में जीने नहीँ देते ।
ऐसा क्यों ?? कारण स्वबोध नही हुआ । केवल स्वयं को श्रेष्ट ही सिद्ध करना है जगत में । इसे दम्भ कहते है । वर्तमान में चहु और दिखती सांस्कृतिक क्रांति और धार्मिक प्रयास विगत 500 वर्ष में सबसे तीव्र है परन्तु केवल दम्भ रूप में ।
अब स्वास्थ्य कोई नही चाहता । क्योकि इससे वैद्य का धंधा चौपट होता है । सो बाते तो है । परन्तु भीतर से कुछ प्रयास नही ।
आपके आज के प्रवचन से सब जग गए तो कल कौन आएगा । यें भय है ... और ये मैंने एस्ट्रोलोजर से डॉक्टर , वकील , कथावाचक तक में देखा ।
कोई भी सार्थक परिवर्तन नही चाहता । सफाई आपके झाड़ू की दुकान पर ताला लगा देगी ।
ईश्वर को सब पसन्द है
कंस भी । रावण भी ।
उन्हें नापसन्द आता ही नही
कर्म क्या है ??
किस कर्म पर जोर दिए गीत जी में ....
कर्म की उत्पति क्या है ?
कैसे कर्म उत्पन्न होता है
कर्म की उत्पत्ति है कामना । चाह । संकल्प ।
और उन्होंने इन्हे ही खत्म करने को कहा । वही नही सब ने कहा । कामना न करो । गुरु जन । बोधत्व प्राप्त सब ने , कामना की निवृति पर जो स्वतन्त्र रूप से क्रिया हो वो कर्म है ... शून्यता पर घटे ।
कामना की निवृति ही हो जाये तो कर्म करेगा कौन ??
इसका उदाहरण रूप में वे ही प्रकृति रूप में है
मधुमक्खी जिस मधु को ग्रहण करती है उसका खुद भोग नही करती ।
गाय अपना दूध नही पीती ।
बैल जो भूमि उपजाता है उसका भूसा खाता है । अन्न नही । रस न खा कर । रस का त्याग ।
ये कर्म है
गाय की जगह हम हो । और एक दिन कोई बच्चे को हटा दूध ले जाए । दूसरे दिन हम क्यों अपने शरीर में अमृत रूपी दूध बनने देगे । हम द्वेष का विष ही देगे
परन्तु आप कर्म से कृष्ण प्राप्ति चाहते है तो नही होगी । क्योंकि भौतिक और पारलौकिक जीवन में निष्कामता होगी नहीं ।
निष्काम रहित सकाम कर्म कभी उन तक पहुँचता नही । हमारी ही कामना की निवृति में रूपांतरित होता है
हमने कर्म के बहुत नारे लगाये ।
अब दो बात जीवन में उतार कर एक वर्ष में अपूर्व आधयात्मिक आनन्द को अनुभूत् करिये ।।
अप्रयत्न
और
अचाह
यें कर्म से विपरीत अकर्म की स्थिति है ।सो सहज न होगी
अकर्ता होना । कर्तापन का बोध न होना यें तो भगवत् कृपा बिन होता ही नही । हम अबोध जीव तो अपने न किये को भी अपना किया कहते है । तब अपने ही किये कर्म क्रिया का कर्ता न होना ये ही सिद्धि । सबसे बड़ी सिद्धि ।
भगत के कर्तापन पर नही अकर्ता पन पर हरिरीझते है ।
जैसे हनुमान जी मे कर्ता भाव नहीं ।
वें जानते है राम जी की चाह और आज्ञा बिना कुछ होता ही नहीं । सर्वत्र राम कृपा से ही सब सम्भव होता है । तब ही राम उनके निकट है ।
इति माम् योsभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ।
मैं कर्म बन्धन में नही बंधता । मेरी वहा स्पर्हा नही । मुझे कर्म लिप्त नही करते । और जो मुझे तत्व से जान जाए वो भी कर्मों से नहीँ बंधता ।।
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