दम्भ या भजन
क्यों ? भजन क्यों ? परम् धार्मिकता प्रतित होती है ... सर्वत्र ही ...
भीतर क्या चाहता है ? क्या अनुराग हो गया है या भय कोई गुढ कामना ..... अथवा दम्भ !!
यें किन्हीं अन्य से नहीं भीतर से ही उठता है ... इस मार्ग की तीव्र उत्कंठा क्या सदा आवश्यक है अथवा कभी जगत् विलास कभी भगवत् रस की केवल दम्भित चेष्टा !
अन्य नहीं ... इस तृषित आत्मा की ही बात कर रहा हूँ ! कभी यें किसी चेष्टा प्रयास से हल्की भी संतुष्ट होती है तो लगता है कि कहाँ गये वें !
न ! कोई संतुष्टी नहीं ! आगे पीछे एक भारी दु:ख है भजन नहीं हो पा रहा ! दीपक है उसमें बाती भी घृत भी परन्तु अग्नि नहीं ! दीपक की ऐसी पूर्णता व्यर्थ है अगर स्व का अवशोषण नहीं ! तृषा-ताप-उत्कंठा-चेष्टा नहीं ! नित्य तत्क्षण प्राप्त भगवान का आभास जब ही है जब अतिरिक्त सुक्ष्मतम् व्यवहार का लोप हो जाये ! भीतर को सब बेस्वाद लगे ! दृश्य जगत् भीषण जलता वन सा ... और उसमें घिरा प्राणी !
कृपा नित्य है अर्थात् जन्म से पूर्व और मृत्यु के बाद भी कृपा ही कृपा है ! सदा कोई संगी है तो भगवान .. सदा ! परन्तु इस सदा के संग में , निज हृदय पर नित्य वास में भी नित्य संगी का संग नहीं ! और किसी भी तरह पुकार को सुन लेने से सिद्ध होता है उनका प्रेम ! कैसी भी दुर्दशा ... कैसा भी उल्लास ... और वें सदा संग ! ... तो अपने भी हुये !
अपने में है ! अभी है ! अपने है और समर्थ है ! इतना सब जानते है ! यें उनका प्रयास है हम तक ! और हमारा ... ??
इतना हो जाने पर सम्बन्ध नहीं ! पूर्ण प्रेम नहीं ! इतना मान लेना और जान लेना ही पूर्ण सत्संग प्रभाव है परन्तु फिर भी चेष्टा नहीं ! क्यों व्यापक है भगवन् ! क्यों भीतर है ! भीतर है ... पर अधिकत्तर जो है वो नहीं कोई देहिक रूप ही जान पडता है ! मैं ईश्वर से आई ... ईश्वर के लिये ... ईश्वर को जाने वाली चेतना हूँ यें बात भूल करोड वर्ष नाना प्रजाती जाती के जीव रहा ! मानव हुआ तो नर-नारी ! जात-पात नाम आदि हुआ ! ... जैसी देह मिली वही स्वयं को मान लिया ! देह के नाते बन गये ! पद प्रतिष्ठा सब देह की ! और जो मैं हूँ वो इसी मद से विस्मृत हो गया ! भीतर का मैं बाहर के मैं से बार बार जुडा ! और बार बार टुटा ! संसार और देह नाशवान है ... जो नाशवान है वो जड है ! और चेतन होकर जड से बंध जाना ... एक बार नहीं ... अनगिनत बार !
संत कहते है ... पूर्ण तीव्र अनुराग रहे ! अनुराग का दम्भ न हो ! और माया बंधन में फँसे जीव से घृणा नहीं करुणा हो ! प्रयास रहे कि नित्य कृपा को स्पर्श किया जावें !
आज मन्दिर जाते समय अनुभुत हुआ कि उनकी ओर जाना उनकी कृपा ! उनका चुम्बकिय प्रभाव ! और लौटना ... माया कह लें या संसारिक विलास की आसक्ति ! अब तक अपने सहित बहुत से पिपासु देखे जिन्हें भगवत् प्रभाव में जितना भीतर तक का आनन्द मिला ... रस मिला संसार से न मिला ! कहीं न मिला ! परन्तु जानकर भी लौटना ... कथित कर्त्तव्य का अटल बहाना ! कुल मिलाकर स्व की घोषणा ! हे भगवन् तुम मेरे बिना रह लेते हो ... तुम्हें इतना नेह है कि मेरे भीतर भी तो रह लेते हो ! परन्तु मेरी बहुत जरूरत है कथित मेरे संसार को ! सो क्षमा ! 24 घंटे 24 मिनट सच्चे नहीं ! क्षमा के साथ कहूँ भगवन् सच्चे 24 सेकण्ड भी आप नहीं ! अनुराग जब जगे जब मैं हटूं और आप आसीन होवें तब आपकी पदसेवा में रहूं ! या जैसा आप चाहे ... पर "मैं" हटूं ! और सच यें है कि मैं नहीं हटना चाहता ! भले हृदय रूपी कमल पर आप बैठे हो ! परन्तु नहीं मानना इस बात को आप खडे हो या ना पुकारे जाने तक अदृश्य और चुंकि आप अदृश्य हो सो अब यहाँ "मैं" बैठा हूँ ! आपका अंश हूँ ..
आपकी सत्ता पर बैठा हूँ और विभिन्न प्रयासों से भगवत् सत्ता पर बैठने की ज्ञात/अज्ञात मानसा धारण किये हूँ सो किंचित् ईश्वरत्व से नित्य अभिमानित हूँ ! वस्तुत: मेरे भजन-सेवा आदि कर्म-प्रयास और कामनायें निरपेक्ष है ही नहीं ... भीतर कहीं न कहीं ईश्वर होना ही है ! सो ईश्वरत्व की आस है युगों की दबी ! प्रेम नहीं ... प्रेम को " मैं " की दरकार नहीं ! अपना ही मैं परम् शत्रु होता तब पर यहाँ मैं कभी छुटता ही नहीं तो सच में प्रेम से तुम नहीं होना ! ईश्वरत्व की भुख है ! हालांकि स्वीकार्य न होगा परन्तु दुर्भाग्य से सच है !
संसार के भी प्राप्त सुख से संतोष न होकर बहुऐश्वर्य चाहिये ! क्यों ? क्योंकि भगवान है ही वहीं जहाँ षड् ऐश्वर्य है जीव पूर्ण तो सभी छ: ऐश्वर्य में ऐश्वर्य युक्त होता नहीं परन्तु कामना की निवृति की जगह पूर्ति में लगता है और कामनायें कहाँ रुकने वाली है !
हम नव साधक पूर्ण शरणागत नहीं ... ना ही हम पूर्ण निश्चल अनन्य भजन कर सकते है ! वैसे भगवत् प्राप्ति से भगवत् पथ में रस है ! कारण ?
भजन-सत्संग और भीतर उत्कंठित वेदना-करुणा का पथ है और यहीं रस है ! मिलन में स्व न होगा ! आनन्द में आनन्द डुब जायेगा ! सागर में बुंद का निज रस नहीं !
हम कुछ थोडे भजन से थक गये ! भजन का रस न मिला ... वरन् अन्तस् में यें प्रश्न ना हो कब मिलोगें ! भीतर बाह्य भजन रस में नहाये रहे और भजन में ही मिलन रस का दिव्य आनन्द रहे ! अपने भजन को बहुत मानना ... तरह तरह के सरल मार्ग विचारने का भाव यें हुआ भजन केवल वस्तु लग रहा है ! साधन लग रहा है ! जबकि भजन में ही कृपा निहित है ... उनकी कृपा दृष्टि हो तो भजन साक्षात् पूर्ण भगवान ही है ! व्यर्थ भाव अधिक हो गया जबकि भजनान्दित रसिकसंतों पर कुछ कहना था कि कब प्यास लगेगी और न लगे वैसी प्यास तो कामना वैसी क्यों ? जैसी वहाँ भी न रही ... शेष आगे ... श्यामाश्याम !! सत्यजीत तर्षित
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