उथली आवाज़ें , तृषित
*उथली आवाज़ें*
भाव भक्ति के पथ की नवीन सुगन्ध से जब जीवन अद्वितीय अनुभूतियों में डूबने लगा ...
बाह्य विस्मरण और आंतरिक सरस् राज्य के उस नव सरस् सम्बन्ध काल मे एक ही भाँति की व्यथा पढ़ने और प्रचलित भजन भाव आदि में सुनने को मिली ।
मुझे लगा कि चारों ओर भगवदीय अद्वितीय सुमधुर सौन्दर्य श्रृंगार में डूबे रहने का लोभ है।
सब रो कर पुकार कर , सुनकर मधुरतम श्रृंगार समुद्र में उलझे रहना चाहते है ।
ऐसे हजारों सभी भजन रचित है जो लालसा दिखा रहे है ...
तब मुझे लगा कि सब ओर गहन दीवानीयत बिखरी हुई है । लोग कुछ भी कर के गहनतम मधुरतम श्रृंगार रस सौंदर्य के भाव समुद्र में डूबे रहना चाहते है ।
उन लिखित और श्रवनार्थ रचित भावों में निजलालसा पर श्री प्रभु की उपेक्षा दृष्टिवत रचनाएं है , वह भाव भजन कहते है कि हमारे भीतर तो आग लगी है ...सर्वस्व वार कर आप के सुधालय में बिखर जाने को परन्तु आप ही अपने मुखड़े (अपने सौंदर्य - अपनी मधु श्रृंगार भाव सुगन्ध) को मुझसे छिपाये हो ।
तब बड़ा ही लोलुप्त परिमंडल दिखाई दिया । मुझे तब उस व्याप्त छाया रूपी तृषा से उसके छाया भर होने का आभास न था । सत्य में अपने प्रति हीनता बढ़ने लगी कि इतनी लोलुप्ता मुझमें कभी होगी नहीं , परन्तु मेरे श्रीयुगल तनिक भी कटु नहीं है ...वें तो सर्वस्व निज श्रृंगार की सम्पूर्ण सुगन्ध धारा स्वयं वार-वार चाहते ही नहीं कि कोई भावुक क्षणार्द्ध भी सँग में असंग को अनुभव करें ।
श्रीयुगल की सरस् सहज मधुर शीतल कोमल भाव-सुगन्ध वाणी रूप श्रीयुगल ही कृपा से बिखेरने लगें जिससे हिय में उठी उस पीड़ा का क्षणिक तो निदान होवें कि जन मानस में यही प्रार्थना व्याप्त है कि प्रभु की ओर से कोई भाव रस छिटका भी नहीं गिरता और हम दिवारात्रि पुकार रहे है ।
आज तनिक पट खुला हुआ दृश्य मिलता है जहाँ दिवा रात्रि श्रीप्रभु के भाव की सुगन्ध की व्याकुलता देखी थी वहाँ वहीँ उन्हीं रस स्वरूप के मधुर श्रृंगार की रसवर्षाओं में वें ही तथाकथित पिपासु छिप गए है ।
ग्रीष्म के ताप से बौखलाया मनुष्य वर्षा की शीतल बौछारों में भीगना भी पीड़ा ही अनुभव करता है । मनुष्य के अतिरिक्त ही जीव सभी ऋतुओं का सम्पूर्ण रस ले पाते है । मनुष्य तत्कालीन स्थिति- अवस्था- ऋतु से सन्तप्त है और इसी सन्ताप निवृत्ति के लिये वह पुकारता है परन्तु पसीने में भीगा मनुष्य कभी वर्षा में भीग कर कृतज्ञ नहीं होता है अपितु तत्क्षण वह अपने जीवन चक्र में बाधा पाता है और वर्षाकाल से भी मुक्ति के लिये उसका मन छटपटाता है ।
यह ही अविद्या है , कि मधुता का प्यासी मधुमक्खी उसे पीना तो चाहती है परन्तु सदा मधु लालायित वह मधुमक्खी मधुपान करती नहीं है । वास्तविक लोलुप्ता के रोगी की वेदना का अवश्यमेव यथेष्ठ पोषण रूपी निदान श्रीप्रभु एक क्षण भँग नहीं करते । अतृप्त धरा पर कहीं न कहीं नित्य ही बटोही मेघ की कुछ बौछारें गिरती ही है ।
आश्चर्य होता है हजारों श्रीकृष्ण-श्रीराधा दीवानों के समूह में सत्य में ही कोई दीवाना सच्चा हो जो सुधा माधुरियों का ही अनन्य चातक हो । तृषित ।
Comments
Post a Comment