परतन्त्रता कारावास , तृषित
परतन्त्रता-कारावास
प्रीति की कुछ अनिवार्य विवशता भरी स्थितियाँ है और वहीं स्थितियाँ भोग विलास जगत से सर्वथा विपरीत है ।
जैसे परतंत्रता यहाँ सँजीवनि है , यह परतंत्रता यहाँ परम् शरणागति है ...प्रपत्ति । शरणागति और परतंत्र दो अलग भाव है परन्तु आज विलासी जीव शरणागत हो नहीं पाता क्योंकि वह सदा स्वतंत्रता तलाश रहा है , दास्यता तो स्वामी के शरणागत ही है । यह परतन्त्रता इतनी गहन आनन्द से भरी है कि इससे छूटना ही सर्वस्व से छूट जाना है । जीव शरणागत नहीं हो सकता क्योंकि वह आश्रयता की आवश्यकता ही अनुभव नहीं करता । प्राप्त सर्व ऐश्वर्यता - सिद्धता समस्त बाह्य परतंत्रताओं से छूटने को है । परन्तु जगत के अभिनय में जब जीव दास्यता के करुण स्पंदन को अनुभव न कर सका तब वह परम् की दास्यता कैसे चाहेगा । चाहेगा भी तो इसलिये कि वहाँ दास्यता में अनन्त लाभ है , अनन्त गुणित सेवा गाढ़ता भी तो है । सेवा वृतियाँ छूट गई है आज अतः आज भोजन परोसने जैसी निज स्थितियों हेतु कैटर्स है । एक समय था इस देश मे जब गाँव मे किसकी कन्या का विवाह यह समझा नहीं जा सकता था सबके हर्ष को देख कर । आज निज सदस्य बनावटी खुशी सँग होते है क्योंकि आज के भोग-विलासी को पर सुख में अनन्त गुणित कष्ट होता है । पर के सुख से कष्ट होने वालों में कैसे परम्-उज्ज्वल सर्वेश्वर के सुख का लोभ विकसित होगा । भावुक प्रेमी तो नित्य चाकर है ...दास है , परतन्त्र है और उस दिव्य परतन्त्रता के उल्लास को प्रपञ्च कभी अनुभवित नहीं कर सकता । आप कहेंगे यह शरणागति जैसा दिव्य उन्माद परतन्त्र रूप क्यों कहा जा रहा क्योंकि मैं अनुभव करता हूँ जब भौतिक जीव अनन्त विकल्पों सँग सन्मुख होते है और समस्त विकल्पों में बाहरी हित होने पर भी वें यहाँ अस्पर्श्य ही है वह सभी नहीं जानते ऐसे विकल्पों का सुझाव मेरे स्वामी को दिया जावें । वे जो इस कठपुतली को नचा रहे । फिर अनुभव किया यह अनन्त विकल्पों में कोई भी विकल्प भला मुझे स्वीकार्य क्यों नहीं हो पाता ...परतन्त्रता । हृदय शीतल हो उठता है अपने स्वामी की अबाध करुणा से जो उत्तम संरक्षक हुये छिपे रहते समस्त क्रीड़ाओं में ।
प्रीति की एक और अनिवार्य विवशता है कारावास । यह शब्द भी विपरीत कहा है उत्तम कर कह्वे तो ...एकांत । चुँकि हम सभी जानते है मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है , उसे एकांतिक कर देना ही दण्ड है उसके हेतु ।
परन्तु भजन-भाव पथ कुछ विपरीतता रखता है , यहाँ सामाजिकता होना दण्ड है और एकांतिकता का गाढ़ होना सँजीवनि स्थिति क्योंकि यहाँ समाज से विभिन्न वस्तुओं से रस लिया जाता है ...चित्त बहुविकल्पित हो उठता है जबकि सरस्-भजन के लिये चित की गाढ़ निर्मलीकरण की आवश्यकता है। अर्थात बहुत छिपी हुई कोई गहन अंधकार में कोठरी हो ,जहाँ किसी को उस भावुक की कदापि आवश्यकता ना होवें । वह नित्य ही प्रति क्षण अपने प्रेमास्पद के स्मरण , उनके लाड़ , उनके उल्लास में भीगा रह्वे ।
विलासी भोगी जगत में छा जाने हेतु जगत में सेवायत है परन्तु भावुक प्रेमी जगत से विलुप्ति हेतु जगत में सेवायत है । क्योंकि स्मरण अर्थात सुमिरण अन्य-सँग में पूरा अनुभव में नहीं हो सकता । वह गाढ़ मुद्रा है किसी कली की प्रफुल्लता की फूल हो जाने की । और जगत में स्थिति वह रख सकता है जिसके भीतर शेषता रह्वे ...इच्छाओं की शेषता ...संकल्पों-विकल्पों की शेषता ...संतापों की शेषता ।
प्रफुल्ल मनुष्य का दर्शन जीव नहीं करना चाहता ...क्योंकि आज मनुष्य के भीतर मनुष्य की परिभाषा में अनन्त भौतिक लोभ भरी पीड़ा सभी और बह रही है ।
मनुष्यता एक साधना है ...साधना एक के लिये होती है ...जबकि वर्तमान मनुष्य का दिन की अलग तूफान में और रात किसी और आँधी में उड़ती है । स्थिरत्व का अभाव । यहीं अभाव सिद्धि रूप दार्शनिक कहते है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है । समाज की गति-मति ही मनुष्य अपनी समझता है । तब वह एकांतिकता की महिमा को अनुभव कैसे करें । और चित्त की स्थिरता पर ही तो स्मरण(भजन) की योगनिद्राओं भावराज्य फूलित होता है । दही भी जमाना हो और दूध को हिलाते भी रह्वे सम्भव है क्या ??? अतः जिस दूध को माखन होना हो तो उसे अस्थिरता छोड़ प्राप्त विपरीत स्वाद तनिक से दही सँग एकांतिक होना होगा । फूल खिलने के सुख के लिये लहरों को धरती होना होता है । नाचती लहरों पर गुलाब-मोगरे के वन-उपवन नहीं उग सकते । अतः भाव पथिक कारावास को माँगता है । जितना भजन गाढ़ता होती है उतना ही हृदय जगत के भोगविलास से छूटता जाता है । रस-भाव मे भीतर उतरता जाता है । जितना भोग-विलास शेष रहता है उतना ही भजनरस प्राप्त होकर भी पिया नहीं जा पाता है । बीते दिनों मेरे समक्ष एक कथित सिद्ध ने 4 सम्प्रदायों के तिलक एक- एक कर के ...एक ही दिन में लगाये और मिटा दिए ... उन्हें डिजाइन नहीं भाई ! यह उन्होंने तिलक नहीं हटाये अपितु उन वैष्णव दिव्य तिलकों ने ही उन्हें उनके द्वारा ही त्याग दिया क्योंकि भोग-विलास और उद्वेगीत चित्त कैसे वैष्णव होवेगा ...जबकि एक ही तिलक को वैष्णव सदा ईश्वरवत धारण करते है और दूसरे सुंदर को देखकर उनका चित्त भटकता नहीं है , जैसी उपासना वैसे चिन्ह धारण होते है । यह भी विपरीतता है प्रीति की प्रपञ्च सँग ...धारणा की एकता...अनन्यता । सेवावृत्ति का अनुभव करने हेतु आज मनुष्य को करुण-प्रकृत्ति ही नेत्र प्रदान कर सकती है क्योंकि कथित वर्तमान मनुष्यता को स्वार्थ-सिद्धि के अतिरिक्त कुछ दिखता नहीं है । क्या आप हमारे यू ट्यूब चैनल *युगल तृषित Divine Feels YUGAL PREM RAS* को सुनते है ...हृदय में धीरे-धीरे एकाग्रता की माँग उठेगी ...सुनने का अभ्यास कीजिये । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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