मणि , तृषित

*मणि*

श्रृंगार रस केलित श्रीप्रियाप्रियतम  एक श्रृंगार को सँग में परस्पर धारण करते है ।
प्रेमी प्रेमास्पद के जीवन में जीवन की अभिन्नता की अखण्ड वाँछा रहती है , वही जीवन यहाँ नित्य बिहार है । वही बिहार नित्य वह श्रृंगार है जिसे उन्होनें परस्पर धारण किया है ।
एक मणि को धारण किये दो स्वरूप जैसे एक स्वभाव में दो फूल झूम रहे हो । मणि शब्द यहाँ  जो हममें दर्शन बनावेंगा वह अधुरा है क्योंकि यहाँ मणि ना ही कोमल है , ना ही सौरभित ,ना ही रसमयी रसभरी मधुरतम है । यहाँ मणि एक चमत्कृत पाषाण के अतिरिक्त कुछ नही है और नित्य श्रृंगार में वही सौभाग्यवति मणि सर्व रूपेण सेवित है । वहांँ श्रृंगार में एक और नवीनता है कि वह युगल की इच्छा स्वरूप स्वभावित है अर्थात् उसकी शीतलता या ऊष्मा श्रीयुगल के विहारित वांछित आहार पर निर्भर है । इन संदर्भों को कहने का तात्पर्य यह है कि बुद्धि तो अपनी एक परिधि रखती है सो बौद्धिक प्राणी श्रीकिशोरी या रसिक कृपा से श्रीयुगल प्रीति में रसीले रंगीले आस्वादनों की अलबेली झारियों को बरबस निहार तो सकते है परन्तु आश्चर्य की उपस्थिति सेवा होने नही देती । और बुद्धि की परिधि है तब तक ही उस परिधि के खंडन का आश्चर्य है सो प्रेम तत्व वह विज्ञान है जिसकी प्रयोगशाला रूपी रँग विलास केलियों में दो रस-रूप के पारखी स्वरूप निरन्तर अपने ही हाव भावों में उसे खोजते हुये उलझे हुये है सो प्रेम का विज्ञान श्यामाश्याम को ही अनुभवित है जिसमें वह नित्य बंधे हुये है ।
मणि ...सेज पर बिखरती यह मणियाँ क्या चुभती है श्रीकुमल रसिली जोरि को ...शायद हाँ जब तक वह अनुभव ना हो कि बिखरी मणियाँ परस्पर स्वरूपों में समा रही है अर्थात् प्रियतम के आभूषणों से झरती मणियाँ ओस की बिन्दु की तरह श्रीप्रिया सुरभ सँग उनके स्वरूप में नवरँग होकर अपने सहज प्रकाश को छू कर सहज प्रीति में मिलित हो रही है ।यह कोई कल्पना नही है ...निहारियेगा अथवा आश्चर्य हो तो इनसे पूछ भी लीजियेगा ...ना नही कहेंगें लज्जा में मुस्कुरा कर हृदय को शीतल ललित मणि से झकझोर भर देंगे । मेरे प्राण प्रियालाल की जिस केलि मधुरता की सेवा में हमें पगे रहना वह तो प्राणों का सहज व्यसन ही है । आप जानते है कि आप क्या तलाश रहे है ??? ...शायद ही कोई माने कि वह श्रृंगार चाह रहा है ...चेतना सजना चाहती है और वह सदा ही इसमें असफल हो रही है सो वह श्रृंगार पथ पर दौड़ती नही अपितु संदिग्ध होकर देखती है वृन्द वल्लरियों को । वृन्द वल्लरि भी कठोर हृदय से अपनी कोमलता से पट नही उठा पाती और श्रृंगार कुँज की हिरणीयों की चाल से छ्पी पगडंडी अदृश्य रहती है , जिससे हम बाहर भटकते हुये से अनुभव करते है । श्रृंगार की यह माँग चेतना की पूरी हो सकती है जहाँ नित्य क्षण क्षणिक श्रृंगार बरस रहा हो स्वयं को सुख देने हेतू इन पियप्यारी की सेवा होकर । श्रृंगार होता है केवल इनकी श्रृंगार मणियों का जो नित्य तृषित रह जाती रस सेवाओं के सँग रँग में तरंगित हो होकर । और और और सेवा श्रृंगार के थाल लिये दौड्ती हुई अनन्त रश्मियों से सघन मंजरियों की कतारों से पूछना सखी क्या वह कभी ठहर सकेगी ...??? क्या उन्हें विश्राम चाहिये इस श्रृंगार कतार से कभी । सुर्य रश्मियाँ इन मंजरियों की कतार से हारी बैठी है , जीव को सुर्य अनन्त रश्मी से निम्ज्जित कर सकता है तो अनन्त महाभाव भरिणियाँ वहाँ सरकती रहती है श्रृंगार मणि होकर । परिणामत: प्रति उज्ज्वल मणि नीलमणि का सुख पिरो कर श्रृंगार रूपी श्यामल नभ गूँथ रही है । जीवन तृषा को भस्म करदो सखी जो अब भी प्राण आहुत होकर उनकी सुख स्थली पर लोटकर अनन्त मणियो से रंगीले ना हो जावें जब तक , रेणू रेणू नवरंगरँगीली मणि कोमल सुरस सुरभित केलिरूपी आहार से सुखमहल को छिपाती हुई रेणू रेणू ...मणि मणि । दौड दौड अरी सुखार्थ दौड री  सखी । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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