माधुर्य लालसा और पथ , तृषित
श्रृंगार रस सामान्य स्थितियों पर लालसा नही हो सकता है । उसके हेतू जीवन में भगवदिय ऐश्वर्य लीलाओं में भी माधुर्य लीला का चकोर होना होगा ।
जिनके भीतर श्री सरकार भगवान नही अपितु श्रीप्रियाप्रियतम निज लाडिलीलाल दम्पति युगल ही प्राण होवें तब माधुर्य जिस रीति या प्रीति से प्रकट होगा वह श्रृंगार है । यहाँ व्याप्त ऐश्वर्य ही लोप होकर श्रृंगार हो रहा है और माधुर्य की सेवा में श्रृंगार हेतू ऐश्वर्य तो लोक में गृहण है । अपनी समस्त बाह्य लोकों की गति जो कि क्रमिक गति से चेतना करेगी वह मिटा लेने पर उन दिव्य लोकों की ओर से स्वतः नमन रूपी पुरस्कार मिलता है । भावुक जितना स्वयं को प्राणों से दीन सिद्ध कर देता है , दिव्य सेवातुर शक्तियाँ अपने वांछित सेवाश्रृंगार उसे दे देते है , जैसे शीतल हिम कन्दरा में विराजे भगवान शिव वाँछा करें कि श्रीयुगल भी हिम कंदराओं में खेलें और यह भावना दृश्य किन्हीं पथिक के हृदय में निक्षिप्त हो जावें । ऐसे समस्त शक्तियों या सिद्धियों से साधक कुछ ना चाहें , प्राणों से सिद्ध कर दे कि कुछ नही चाहिये । तब वही सिद्धियाँ अप्राकृत सेवा स्वरूप में साहायक होती है ।
जिस प्रकार लोक में निर्धन पिता के यहाँ आगन्तुक कन्यादान दे देते है । वैसे ही भावुक सेवार्थ दास या दासी होकर लोलुप्त है , उसमें ऐश्वर्य भाव रस नहीं है तब वहाँ समस्त शेष यात्राओं से कोई बँधन ना मिलकर युगलार्थ सेवा ही प्राप्त होती है । मंजरीयों को निज सखियाँ भी श्रीप्रिया श्रृंगार निवेदन करती है , वर्तमान साधना में मंजरी स्थिति इसलिये दुर्लभ है कि हृदयपीठ पर कुमुदिनी श्रीप्रिया ही आरूढ रह्वे यह भाव अनन्य नहीं है ।
जितना भी भाव भजन है , वह हो किस हेतू रहा है यह मह्त्व करता है । लोकार्थ हो रहा है तो वह दंभ भर है , निज हियार्थ सब है तब ही सब हो रहा है वर्तमान में अभिनय पूरा भक्ति का होकर हृदय पर प्राकृत आवरण स्थाई होते है ।
भारतीयों ने 70वर्षों से ऐसे फिल्मी गीत जी जान लगा कर सुनें है जिनमें केवल माधुर्य है , श्रृंगार है उनमें कोई भी ऐश्वर्य सिद्धि नही है । फिर भी इन भारतीयों को श्रीजी सन्दर्भ में श्रृंगार रस समझ ना आवें तो इसका कारण है कि अभी निजता और निज श्रृंगार की चिंता ही शेष है । जीव को कहा जावें कि श्री प्रियाप्रियतम को आलिंगन करोंगे वह तत्काल हाँ कह देगा , यह कोमल माधुर्य ना हुआ । वही उसे श्रृंगार पात्र में सुग्धित रस देकर कहा जावें कि श्रीचरणों पर लेपित करो तब वह ठीठक जायेगा । क्योंकि वास्तविक स्थिति और दंभ भरी स्थिति में यही भेद है , सहज सेवा की लालसा बडी ही कोमल होती है । श्रीचरणों का अनवरत भजन काल में कोमलत्व पकडे रखिये , दर्शन तो चक्षु के अंतर्मुखी होने पर होंगें , श्रीचरणों की कोमलता को छूकर , जावक सुगन्ध को पीकर भजन कीजिये । हृदय चरणसेवा स्वतः होता जायेगा ।और श्रीप्रियाप्रियतम का श्रृंगार ही जीवन रहेगा । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
एक सुंदर बालिका हो , प्रफुल्ल हो ..कौन सेवार्थ अवसर नहीं तलाशता । मंजरी भावार्थ बहुत अधिक प्रयासों की आवश्यकता ना है । यहाँ निजता अनुभव पर सेवा तो प्राण आहार होती है ।
स्वार्थ के इस युग में लघुतम भोगों का स्वाद ना छोडने से महादिव्य प्रेम पथ पर स्व के स्थान पर प्रेमास्पद का सुखचिन्तन होना दुर्लभ हो गया है ।
सभी साधन या जीवन का क्षण क्षण प्रेमास्पद हेतू हो तब सेवार्थ निजभाव स्वतः छूने लगता है ।
करना कुछ नही होता भावार्थ , करने को होना पाना होता है । अखण्ड कृपावर्षा में नित्य निमज्जन । प्रेमास्पद नामामृत श्री नित्य प्रेमी को सुनावें अर्थात प्रियतम का नाम श्रीप्रिया सुन रही है । इस भाव से जो नाम आप प्राकृत जीव को सुना रहे है वह अप्राकृत दिव्य नाम की ही नित्य प्रिया सुनें यह भावना करते ही वह उनके सुनने हेतू कोमल भी हो जायेगा और यहाँ सुनने वाली श्रीप्रिया में चित्त जब पूरा रमण करेगा तब गान करने वाली स्थिति भी वह ही होगी जिससे भावना अपना प्राकृत सम्बंध उलाँघ देगी । यह प्राकृत उलाँघ लगानी है , वह होगी श्रोता वक्ता अप्राकृत नित्य प्रेमी हो । यहाँ किसी भी प्राप्य लोभ चिन्तन को छोड साधक केवल वाद्य सा रह जायेगा । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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