लीला-कारण , तृषित
*लीला-कारण*
लीला अकारण है , चूँकि लीला अकारण है परन्तु जीव की स्थिति कारणमय है ।
समस्त कारणों से परे होने से समस्त कारणों का आश्रय भी लीला है ।
बिना कारण जीव की स्थिति केवल अबोध शिशुवत है । वह शिशुता को तो शिशु में ही नही देखना चाहता । वर्तमान शिशु में प्रौढ़ता देखता जीव, कारण चाहता क्षण-क्षण का ।
लीला प्रकट हो सो , कारण को अप्रकट करना होगा । कारणों के समुच्च में प्रकट लीला भी अप्रकट रहती है ।
लीला है तो कारणातीत है । कारण है तो लीला अदृश्य है ।
कारण हीन स्थिति वर्तमान में किसी की आवश्यकता नही है । प्रेम तो अकारण विलास है । वह विलास जिसमें कारण हो वह तो विलास होता ही नही ।
विलास कारण से परे है और वह अकारण नित्य विलास लीला है ।
कारण के पीछे संकल्प विकल्प रहते है । जिस दृश्य का संकल्प न हो , कल्पना न हो वह लीला है ।
जीवन के कारण तत्व की सिद्धि होने पर वह अकारण स्थिति पर आ सकता है ।
अथवा अकारण स्थिति को जीवन स्वीकार करने पर जीवन कारणो से छुट सकता है ।
किसी के भी कदम कदम में कारण है , वह कारण स्व लाभ है । हानि प्रकट हो और कदम बढ रहे हो तब कारण का लोप है क्योंकि कारण स्वार्थ के इर्द-गिर्द जीवित है । परमार्थ कारणों से मुक्त रस जीवन है ।
कोई दुर्लभ मनुष्य आकृति ही कारणों से परे होगी , वरण यत्र तत्र कारण का विलास है , जगत होकर । मनुष्य से पृथक् खग और पुष्प आदि में अकारण स्थिति होती परन्तु नित्य न होती है । युग के प्रभाव से सर्वत्र कलुषता है , मनुष्य मात्र हरि भजन से उसे मिटाने में समर्थ है ।
स्वार्थ सिद्धि भरे कारणमय जीवन में स्वतंत्र सिद्धि न होती वह पिंजरे से छुट पूरा नही उड़ पाता ।
कारण मुक्त जीवन लीलामय हो सकता है । लीला कारण की मति से परे है ।
जीव को कारणमय जीवन में इतनी प्रीति है कि वह लीलामय जीवन को त्याग सकता है ।
लीलामय जीवन नित्य नित्य नित्य वर्धनमय स्पंदित है । कारण ही लीला स्पंदन को अदृश्य या गौण करता है ।
कारण की असत सत्ता से ना छूटने पर शास्त्र-रसिक कारण को विशुद्ध करने हेतू उसे अपनी ओर से निर्धारित किये है परन्तु उससे पूर्व अन्य कोई न्यून कारण भीतर न हो ।
विशुद्ध सत्व ही विशुद्ध कारण को लीलावत देखता है जहाँ कारण अप्रकट और जीवन प्रकट हो वह विशुद्ध कारण है यह ही प्रेम रस जीवन है
कारण से प्रीति ऐसी सघन है कि अकारण होकर रस या प्रेम अथवा हरि रति भी किसी को अब नही चाहिये
कारणो से मुक्त होने हेतू सेवार्थ तत्परता हो , परमार्थ भीतर हो ।
तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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