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Showing posts from December, 2025

श्रीवृन्दावन विलास ,युगल तृषित

श्रीवृन्दावन विलास मूल साकार विलासी श्रीस्वरूप निधि रसिकों के प्राण श्रीप्रियाप्रियतम जिस दृश्य को संयुक्त रूप से निहार रहे हैं , वह ललित सुन्दर मधुर अनुपम प्रेममय सुदृश्य श्रीवृन्दावन है । श्रीप्रियाप्रियतम के अपार अपरिमित विपुल रस और प्रेम को जो धरा धारण करती है ... वह मधुर रतियों की प्राण धारणा श्रीवृन्दावन है । प्रेम की अन्नत कौतुकमयी वर्षा है श्रीवृन्दावन ।  श्रीप्रियाप्रियतम के 'अपार' अपरिमित महाभाव प्रेम को समेट लेने वाले भाव रूपी वनों का समूह श्रीवृन्दावन है । श्रीप्रियाप्रियतम के श्रीनयनों से झरता ललित सौन्दर्य श्रीवृन्दावन है । श्रीप्रियालाल की नित्य अनुरागिनी मञ्जरी - सहचरियों के अनुराग से फूलता हुआ विलास श्रीवृन्दावन है । अनन्त मञ्जरी-किंकरियों या लता-फूलों द्वारा जो युगल की नित्य सेवावृत्ति रूप दिव्य भाव थली है , वह श्रीवृन्दावन है ।  प्रेम प्रदेश , प्रेम देश , प्रेम वेश , प्रेम विशेष और प्रेम ही शेष जहाँ उत्सवित है वहीं प्रेम की मधुरा श्रीवृन्दावन माधुरी है ।  सम्पूर्ण श्रीयुगल प्रेम के आस्वादन को श्रीयुगल को ही नित्य अर्पित करती अन्नत प्रफुल्ल फूलनियों का र...

केलि, युगल तृषित

केलि पुष्प की पँखुडियों को कोई पागल हो कर ... ललित होती केलि (खिलती कलि) ... कोई निहारना झेल लें तो यह सुगोप्य केलि रहस्यमयता भीतर उतर सकती है । वरण व्याप्त है ही , बस भिन्न दशाओं के संयोंग या महाभावों के अभावों से स्पर्श नहीं है ।  शब्दों में केलि स्पर्श उन्हीं को हो सकते है जिन्हें नाद में भी केलि स्पर्श होते हो और नित्यव्याप्त अपरिचित मधुर सहज ध्वनि रूपी नाद में केलि स्पर्श उन्हें हो सकते है जिन्हें वायु के रव-रव में उन केलियों का वर्द्धन और झरण अनुभव बनता हो , पवन के झोंको में जिनसे मिलने कोई सुगन्ध आ जाती हो । कोई अलबेली सी महक अचानक उन्हें छेड़ जाती हो । जो पक्षियों के कलरवों पर नाच जाती हो और नाचती तितलियों के लिए गा जाती हो । नयनों में भरे पावसीय या बासन्ती वन को जो चित्र रूप सुदृश्य कर सकते हो । प्रेमियों के कौतुक होते है केलिमय जहाँ एक विपुल समाज एक ही मनोरथ खेल सकता हो तो यहाँ द्वंद शून्य वह मधुर खेल का ललित स्वरूप केलि कथ्य है । केलि किन्हीं भी सहज तत्वों का पूर्ण विशुद्ध प्रसादित स्वरूप है ।  केलि मात्र निर्मलतम प्राणों पर प्रकट अभेद मण्डल का विलास दर्शन है कि कैसे...

श्री प्रिया हृदय निधि - श्रीवृन्दावन , युगल तृषित

*श्री प्रिया हृदय निधि - श्रीवृन्दावन* श्रीवृन्दावन श्रीवृन्दावन श्रीवृन्दावन अहा अहो ... श्रीवृन्दावन ... अहा अहो ... हो हो हो रि प्रेम पहौरि श्रीवृन्दावन ... । श्री किशोरी जू का हृदय ... प्राण ...  साकार ... हृदय क्षेत्र ....  विलास हेत ... प्रेम खेत ... हृदय रि हृदय ... प्रफुल्लित रससिक्त रसार्णव रससार आह्लाद का श्रृंगार महौदधि  (महासागर) श्रीवृन्दावन ....। श्री रसिकों का केलिकल गान रूपी जयघोष ... श्री प्रिया जू का ही हृदय दर्शन है श्रीवृन्दावन ... सहजताओं में नित्य श्रृंगार भरित नवीन उत्सवों सँग विलसते  श्रीअनन्त सुख सुखिता कौ उल्लास श्रृंगार । श्रीमहाभाविनि और श्रीरसराज की प्रीति सेवार्थ निज प्रेम हेतु सुखालय ... अनन्त सरस उत्सवों कौ धारित भारित करते श्री विलास निधि ... श्रीविपिन श्रीवनराज और श्रीप्रिया के हृदय से उच्छलित प्रेम के अनन्त महाभावों का मूल उद्गम क्षेत्र ... रस की कारण कार्या  एवं कारिणि श्रीप्रीति रूपी महोत्सव का अभिसारण उत्स ... श्रीप्रिया का श्रृंगारात्मक अभिसार ... श्रीप्रिया का विलासात्मक महाभाव ...  अनन्त अन्नत रस सरस विलास लास हुलास ...

कर्म - तृषित

*कर्म* प्रायः अपने भौतिकी उपद्रवों के लिए कहा जाता है कि मात्र कर्म करो फल की चिन्ता ना करो । हमारे वें उपद्रव जिन्हें क्रियाकलाप कहना भी इस दिव्य शब्द का अपराध ही है ... श्रीमद्भगवतगीता जी के आधार पर यह अर्थ किया जाता है और कुछ भी करने को कर्म कह कर आगे समझा जाता है जबकि कर्म का सम्बन्ध सामान्य स्वार्थपूर्ण भौतिकी कृत्यों से नहीं है । कर्म है किसी वृक्ष का सौन्दर्यमय होकर पुष्प होना और पुष्पों से सुसज्जित होने के लिए पूर्णतः उत्सवित होना । कर्म वह कौतुक है जिसके लिए पृथक्-पृथक् प्राणियों की संरचना हुई है । कर्म सहज ही प्राकृत को अप्राकृत से सम्बन्ध करा देता है , कर्म वह अदृश्य मार्ग है जिस पर चला जावे तो हमारे यूं चलते-चलते यह सृष्टि उत्सविता होने लगती है । परम् हेतु परमार्थ । परमार्थ हेतु प्रकट परम् का कौतुकमय उच्छलन । एक रसमय अद्वैत सम्बन्ध का पथ है कर्म । कुछ भी करना ही कर्म कह देना सुंदर नहीं होगा क्योंकि कर्म अगर स्पष्ट रूप से समझते बना तो वह पुष्प को भी मधु बना देने की गोप्य - विद्या है । कर्म का सम्बन्ध सृष्टि के ललित श्रृंगार से है ना कि कुछ भी वह कृत्य जिसमें सृष्टि को परिणाम...

ऐसे रहैं संसार में,हरि ही सौं करि प्रीति , तृषित

*श्रीकुंजबिहारी श्रीहरिदास* *ऐसे रहैं संसार में,हरि ही सौं करि प्रीति* श्रीहरिदास , केवल और केवल जब प्रीति मात्र एक ही दिशा में होती है तो सहज ही अपना नवीन जीवन बना सकती है । इस अखिल ब्रह्माण्ड में सम्पूर्णताओं को अपना प्रभाव दिखाने में हम  , हमारे भीतर के प्रीति स्पंदन को छू नहीं पाते है । हम विश्व विजय चाहते है जबकि इस विश्व और इसके विजयी की स्थिर सत्ता ही नहीं । ना ही यह जगत कभी किसी की मुष्टि में बन्द हो सका है तब भी हमारी वृत्तियों पर जगत का सँग प्रभावित दृश्य ही है , विश्व जहां प्रेम करें वहीं हमें प्रेम होता है और विश्व जिसे बिसार दे उसे ही हम स्वयं के लिए त्याज्य मानते है अर्थात् हमारी स्वयं की धारणा मात्र वैश्विक स्थिति है । जबकि सिद्ध रसिकों द्वारा संसार में रहकर संसार बिसारने को कहा गया है , अगर ऐसा हो रहा है तो निश्चित हमें वह रस और वह प्रेम और वह रसायन मिल ही गया है जिससे संसार अछूता ही है और अगर हमें भी वहीं सब अनुभव मिल रहा है जो कि शेष संसार को तो निश्चित ही हमारी दिशा संसार की ओर ही है ।  संसार के नयन और संसार के संकल्प-विकल्प आदि- आदि इस प्रेम मार्ग पर सार्थक...

तेई हरि के पास हैं,जिनकौ हरि सौं भाव। तृषित

*श्रीकुंजबिहारी श्रीहरिदास* *तेई हरि के पास हैं,जिनकौ हरि सौं भाव।* *देही नाते सब तजै,हरि मिलिवे कौ चाव।।५५०।।* अन्नत प्रेम सिद्ध विलासों के महाभाव प्राण-रस स्वरूप है ,  हमारे श्रीश्यामाश्याम । सभी ही लताओं - खगों एवं  प्रेममय मुग्ध प्राणियों के उच्छलित प्रेम मनोभाव सहज ही उनके ही निजतम कौतुक और स्वभाव है ।  भावमार्गियों की परम् आवश्यकता बननी चाहिए कि वें पूर्ण अभियोग और पूर्ण समर्पण सँग मात्र श्रीप्रियालाल के सुख की आकृति बनें । जैसे-जैसे उनके सुख की नवीन उछाल हो , वैसी ही हमारी हिय लहरियां नृत्य करती हो । हमें मात्र एक ही इच्छा हो कि हम वैसे ही हो जावे जैसे कि वें हमारे श्रीप्राण सहज ही है , उनके कौतुकों और रँग आदि को निजता से धारण किए बिना , उनका होना सरल नहीं है । ज्यों हमने इस प्रपंच और इसके पदार्थों को अपना मानकर इनसे सम्बन्ध स्थापित किए है , त्यों ही श्रीललित प्राण सरस मधुर सुकोमल श्रीपियप्यारी के प्रेम उन्मादों में हमारी गति-मति प्रकट होती हो ।  बाह्य सम्बन्धों का सङ्ग और रङ्ग भुलाए नहीं भूलता है , भीतरी विलास के सम्बन्धों में सहजता होने पर बाह्य सम्बन्धों का...

मन-यात्रा मदन-सुवास , तृषित

*मन-यात्रा मदन-सुवास* पराजित मन कहाँ नहीं निवास करता है , अन्नत विरोधों के मध्य इसके हेतु एक ही निरोध लीला है .... अन्नत तिरस्कारों सँग एकाश्रय वह श्रीवेणु नाद ... ।  चिंतन हेतु हम कहें कि देखो सरोवर में हँस खेल रहे है , या आम्र वृक्ष पर कोयल कुक रही है , सघन वनों की ओट में मयूर नृत्यमय है ... और मन इन झांकियों को पीने लगता है परन्तु यह कहा जावे कि क्या हमने हँस या मयूर या कोयल से अनुमति ली ...  तो मन आत्मीय संगत से उत्तर लेकर कहेगा कि चितन की सर्वमेवता आत्मा का स्वभाव ही है ... मन संगत करता है , इंद्रियों का अथवा बुद्धि आदि का अथवा आत्मा का । मन सदैव किसी निजतम रहस्य की खोज में ही है और मन की संगत से ही इंद्रिय आदि निज पोषणमया है । मन निर्गुणात्म स्वभाव से सगुणात्मक अथवा संज्ञाओं तक यात्रा करता है अपनी संगतों के कारण । जैसे कि मन को कहा जावे कि आम्र मधुर है परन्तु आगे कहा जावे कि इस जातीय विशेष का आम्र मधुर है परन्तु नित्य नवीन मधुरता या रसमयता रूपी मन की खोज अन्नत है जो कि पूर्ण ही नहीं हो पाती है क्योंकि अपरिचित आधारों पर यह खोज है । मन रहित कुछ भी क्रिया हो तो वह भी सजीव ज...

इष्ट भोग चिंतन और भौतिक सम्बन्ध - trishit

*इष्ट भोग चिंतन और भौतिक सम्बन्ध* भौतिकी प्राणी सम्पूर्ण जीवन स्वयं के  लिए नवीन भोग खोजता रहता है और उन्हें पाकर पुनः और नवीन भोग खोजने लगता है । बहुतांश भोगों की प्रदर्शनी भी लगाई जाती है जैसे कि विवाह समारोह में अनावश्यक अति संख्याओं के स्वरूचि प्रीतिभोज आदि । परन्तु भगवदीय सेवाओं में यह संख्याएं सर्वत्र सिमटी हुई ही होती है अतः सहज लीला चिंतन जटिल है क्योंकि लीलाओं का दृश्य स्पष्ट ही नहीं है अथवा अतिव सीमित या क्षीण है ।  भोग चिंतन में यही प्राणी बड़ा कौतुकी है जो कि एक छींक या जुकाम के लिए उनके पास सैकड़ों उपचार है परन्तु भगवदीय सेवाओं में और उनके चिंतन में अतिव निर्धनता ही है ।  ऐसे ही आजकल अन्नत सौंदर्य प्रसाधन प्रति अँग और भिन्न वेला या मौसम अनुरूप एवं अवस्था या स्त्रीलिंग/पुल्लिंग अनुरूप भिन्न और भिन्न होते जा रहे है अर्थात् आपके हाथों का साबुन और मुँह का साबुन अब लगभग भिन्न ही  है परन्तु विलासों के चिंतन में इतनी विविधता जो कि शास्त्रों एवं रसिक वाणियों में वर्णित ही थी उन्हें हम भुलाने पर ही है ।  कल्पित हो रही और सर्वत्र सहज सुलभ हो रही आर्टिफिशियल झ...