ऐसे रहैं संसार में,हरि ही सौं करि प्रीति , तृषित

*श्रीकुंजबिहारी श्रीहरिदास*

*ऐसे रहैं संसार में,हरि ही सौं करि प्रीति*

श्रीहरिदास , केवल और केवल जब प्रीति मात्र एक ही दिशा में होती है तो सहज ही अपना नवीन जीवन बना सकती है । इस अखिल ब्रह्माण्ड में सम्पूर्णताओं को अपना प्रभाव दिखाने में हम  , हमारे भीतर के प्रीति स्पंदन को छू नहीं पाते है । हम विश्व विजय चाहते है जबकि इस विश्व और इसके विजयी की स्थिर सत्ता ही नहीं । ना ही यह जगत कभी किसी की मुष्टि में बन्द हो सका है तब भी हमारी वृत्तियों पर जगत का सँग प्रभावित दृश्य ही है , विश्व जहां प्रेम करें वहीं हमें प्रेम होता है और विश्व जिसे बिसार दे उसे ही हम स्वयं के लिए त्याज्य मानते है अर्थात् हमारी स्वयं की धारणा मात्र वैश्विक स्थिति है । जबकि सिद्ध रसिकों द्वारा संसार में रहकर संसार बिसारने को कहा गया है , अगर ऐसा हो रहा है तो निश्चित हमें वह रस और वह प्रेम और वह रसायन मिल ही गया है जिससे संसार अछूता ही है और अगर हमें भी वहीं सब अनुभव मिल रहा है जो कि शेष संसार को तो निश्चित ही हमारी दिशा संसार की ओर ही है । 
संसार के नयन और संसार के संकल्प-विकल्प आदि- आदि इस प्रेम मार्ग पर सार्थक होंगे ही नहीं । क्योंकि संसार वस्तु पदार्थों का भोक्ता है , जबकि प्रेम सुखों की रचनामयी लीला है । संसारी के हाव-भाव संसृत ही खेलते है , जैसे कि कोई फल या लता देखी उसे तोड़ लेने का मन होना , जबकि प्रेमी के नयनों में श्रृंगार विलासमय रहता है , प्रेम फूल को फल करने की रचना है ... प्रेम खिलता हुआ विलास है ... सेवाओं का उत्स ... । प्रेम ही सहज अस्तित्व की सरस रचना निहार सकता है और संसार निजतम हमारे अस्तित्व को ही मिटाकर कर विपरित गतिमया है , संसार को बिसारना प्रेम के लिए परम् आवश्यक ही है जबकि संसार में रहते हुए संसार शून्यता होना कठिन ही है क्योंकि हमारा समस्त बोध और क्रियाकलाप संसार जन्य ही है । प्रेम को स्वीकार करते ही प्रेम के सहज विलास हमारे अस्तित्व का कारण रहेंगे । प्रेम जो रस और मधुरता देगा वह संसार के पास सुलभ ही नहीं है , तदपि संसार की किससे और कहाँ प्रीति है , वहीं हमारी प्रीति बनती है । जबकि सहज प्रेम में संसार यह तय ही नहीं कर सकेगा कि हमारे प्रेम की दशा और दिशा क्या होगी , क्योंकि हमने प्रेम को चुना है और प्रेम को ही अपना सर्वस्व मान लिया है तो प्रेम ही हमारा राजमार्ग तय करेगा और प्रेम ही हमें अपना वैभव विलास दर्शन कराते हुए मात्र हमें प्रेम के सुरँग रहस्यों की ओर लेकर वैसे उड़ेगा जैसे कि कोई तिनका ब्यार के बस ... । 
प्रेम के अन्नत रहस्य है क्योंकि संसार ने जिन्हें कृष्ण मानकर केवल एक रँग में रँग दिया हो , उन्हें श्रीरसिकों के ललित नयनों से श्रीगौरेलाल या श्रीनीलमणि निहारा जा सकता है । 

*और संगी सब यौं गनें,जैसे मेला मीत*

संसार की इस चाल में यूं चलना है कि जैसे कि किसी मेले में मिलें प्राणी , मेले में अथवा बाजार में तो भिन्न प्राणी मिलते रहते है और मेला चलता रहता है , उनका हमारे जीवन में प्रभाव ना ही छुटे तो हम सहज यात्री है ,  वह मेले में मिले हुए प्राणी हमारे जीवन के संगी नहीं है । सभी अपनी ही यात्राओं पर है तदपि मिले या ना मिले प्राणियों की नकल आदि हमारा अस्तित्व क्यों बन जाता है । उदाहरण के लिए कि प्रत्येक का अपना स्वर है परन्तु किसी प्रसिद्ध गायिका के स्वर को ही अपना लक्ष्य मानकर अधिकांश वैसी ही नकल क्यों करते है अगर स्वयं के स्वर को तराशा जाता तो प्रत्येक गीत प्राणगीत हो नवीन ही होता । जब नारंगी और अंगूर , नींबू आदि का खट्टा स्वाद ही परस्पर भिन्न है तो भिन्न दो प्राणियों का एक जैसा स्वर या हाव-भाव क्यों , क्योंकि यहां अनुगमन बना है । हमने इधर उधर से पूरा विश्व स्वयं पर डाल रखा है , किन्हीं भी प्रसिद्ध आदि की नकल करने से ही स्वयं का स्वर या स्वभाव प्रकट अनुभव ही नहीं है । जबकि वन में सारिका (मैना) या कोकिला (कोयल) का गीत सुनकर भी शुक (तोते) अपने स्वर में गान करते है और मयूर अपने ही में । 
प्रेम का विलास यह सिद्ध करता है कि आप किन्हीं की प्रेमकृति हो और बड़े ही प्रेम से उसमें प्रेमार्थ भिन्न ही रस है जैसे कि दो भिन्न पुष्प या फलों में भिन्न रस होता है । जगत का सँग ही हमारे सहज चेतन को वर्णसंकर करता है और सहज प्रेम के सहज सँग से ही अपनी ही अदृश्य निजताओं का अनुभव बन सकता है । तदपि जगत के मेले से बाहर प्रेम के विलासों तक पहुंचना सरल नहीं है क्योंकि हमारी प्रत्येक चेष्टाओं में जगत का असर हो ही रहा है जबकि प्रेमी की अपनी ही धुन और अपनी ही मौज है । गुलाब के सँग भी मोगरा अपनी मदिर महक नहीं भूलता है । अगर आपको भी आपकी ही भावना , महक , स्वाभाविक वह दशा जो सहज नित्य है आदि निजताओं का अनुभव है तो प्रेम के सँग की कृपा हो चुकी है । प्रेम प्रथम स्वयं के रँग दिखाता है और फिर उन्हें इष्ट को सौंपता है ...
अभी तो एक गिलहरी भी हमारी ओर नहीं आ रही है और हमें श्रीजी सरकार अपनी ओर आती हुई चाहिए ... प्रपञ्च मिटने पर सहज प्रेम की प्रकृति के सँग से स्वाभाविक प्रकृति और प्रकृति की भी प्रकृति अपनी अन्नत प्रकृतियों सँग हमारी प्रकृति से सहज खेलने लगती है , अतः वन हमारी प्रकृति हो तो श्रीवन रहस्य सहज होंगे और जगत मेले तब सहज ही पराए रहेंगे । श्रीवृन्दावन । युगल तृषित । 


*श्रीस्वामी ललितकिसोरीदेवजू*
*सिद्धांत की साखी*

*ऐसे रहैं संसार में,हरि ही सौं करि प्रीति।*
*और संगी सब यौं गनें,जैसे मेला मीत।।*

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