मन-यात्रा मदन-सुवास , तृषित
*मन-यात्रा मदन-सुवास*
पराजित मन कहाँ नहीं निवास करता है , अन्नत विरोधों के मध्य इसके हेतु एक ही निरोध लीला है .... अन्नत तिरस्कारों सँग एकाश्रय वह श्रीवेणु नाद ... ।
चिंतन हेतु हम कहें कि देखो सरोवर में हँस खेल रहे है , या आम्र वृक्ष पर कोयल कुक रही है , सघन वनों की ओट में मयूर नृत्यमय है ... और मन इन झांकियों को पीने लगता है परन्तु यह कहा जावे कि क्या हमने हँस या मयूर या कोयल से अनुमति ली ... तो मन आत्मीय संगत से उत्तर लेकर कहेगा कि चितन की सर्वमेवता आत्मा का स्वभाव ही है ... मन संगत करता है , इंद्रियों का अथवा बुद्धि आदि का अथवा आत्मा का । मन सदैव किसी निजतम रहस्य की खोज में ही है और मन की संगत से ही इंद्रिय आदि निज पोषणमया है । मन निर्गुणात्म स्वभाव से सगुणात्मक अथवा संज्ञाओं तक यात्रा करता है अपनी संगतों के कारण । जैसे कि मन को कहा जावे कि आम्र मधुर है परन्तु आगे कहा जावे कि इस जातीय विशेष का आम्र मधुर है परन्तु नित्य नवीन मधुरता या रसमयता रूपी मन की खोज अन्नत है जो कि पूर्ण ही नहीं हो पाती है क्योंकि अपरिचित आधारों पर यह खोज है । मन रहित कुछ भी क्रिया हो तो वह भी सजीव जीवन नहीं । मन सँग ना हो और कितना ही सुन्दर दृश्य या भोजन आदि ही मिल जावें स्वादादि की अनुभूति नहीं होती है परन्तु यह मन कहीं सजीव संगत करें तो आश्चर्यमय बांवरा ही दृश्य होता है जैसे कि किन्हीं बालक का मधु भोग आदि , आजकल जो बालक सम्पूर्ण मन और आवेश से चॉकलेट का रस ले रहा है वह उसके मूल फल रूपी स्रोतों से भी रस लें सकेगा यह असंभव ही है , अतिव कटु फल पर वह मधुताओं का लेपन है और मन संगत सँग यह भी क्रमिकता से जान सकता है कि मधुताएं तो अन्नत पुष्प और फलों में अन्नत ही है । यह अन्नत में व्याप्त अन्नत रस और सुगन्ध को पान करने का अधिकार मन को कौन देता है ... विस्तृत होता चेतन । कोई गृहस्वामी अपने बाग के पुष्पों को पूजन हेतु भी ना दें तो वह भ्रमरी- भ्रमर आदि को मूर्ख ही प्रतीत होगा क्योंकि पुष्पों का सहज सँग तो भ्रमर आदि होते ही है और उन्हें भी रोक देने पर वह पुष्प का सहज विलास है ही नहीं । परन्तु इन इंद्रिय आदि द्वारा रसों को पाकर ... भिन्न-भिन्न राजभोग रूपी सुख पाता हुआ यह मन ... धर्म की निषेध नीतियों को भी रसार्थ पीते हुए लास्यमय होने लगता है ... मन को कहां चलना है और कहां थमना है यह भांति - भांति के बोध मन को और तदोपरान्त जीवन को ही नृत्य में पिरो देते है । एवं पुनः मन पूछता है कि उन कोयल या हँस या मोर के चिंतन का अधिकार है ... हमने अनुमति से तो वह नहीं ही किया है ? क्योंकि चेतना को चिंतन से रस है और मन की संगत ही चिंतन आस्वादन चेतना को करा सकती है । प्रायः मन को संकल्पों का पदार्थ भी कहते है और संकल्प शून्यताओं पर मन की शान्ति भी कही गई है परन्तु कुछ श्रवण करने से घ्राण इंद्रिय को सुख है अथवा मन को ही क्योंकि कुछ चखने से भी मन को ही सुख कहा गया है जबकि मन से पूछो तो वह कहेगा कि वह मात्र सख्य रूपी सँग है और किसी तरह के रस की चोरी में वह मात्र मित्र ही रहा ... स्वयं तो वह अतृप्त ही है ... भिन्न-भिन्न उत्तर आदि से थकित मन को एक उत्तर मिलता है श्रीकृष्ण चिंतन और यहां कोई बांध नहीं है अतः मन अपने सर्व आवेशों सँग कालिंदी होकर श्री कृष्ण चरणों में लिपट लिपट निजतम आद्रता को छूता है और भौतिकी तत्वों में वह सगुण हो नहीं सका क्योंकि आम्र हेतु कोयल रूपी संरचनाएं तो है परन्तु सभी आम्र पर कोयलों का सहज अधिकार भौतिकियों के विवेक में उदय ही नहीं हो सकता है । तदपि घरों में घुसकर फलादी चुराते वानर और दूध आदि पी जाती बिल्लियों (शावक) के गर्वीले कौतुकों से यह बौद्धिक प्राणी उनके भी पदार्थो को अपना ही मानकर दम्भ रखता है । और मन जो कि निर्गुण सगुण द्वंद का उत्तर पाता है श्रीकृष्ण लीलाओं में तब भांति भांति के सोपानों को पीते पीते सम्पूर्ण आवेशों सँग अगर कृष्ण सँग हो उठे , और यही मन उन्हीं श्रीसुन्दर पर झरित हो उठे तो वहां अन्नत अमनिया मनों के अभिषेक से प्रकट स्वरूप कहे जाते है श्रीमदन-मोहन । मन की सम्पूर्ण लालसाओं को सिद्ध करते हुए अत्यन्त सुन्दर स्वरूप कि उस दर्शनाभूति के लिए पृथकत्व धारण करना मन के लिए असंभव ही है , परन्तु भांति- भांति के इंद्रिय आदि के सँग सहज निर्गुण सुखी होता हुआ यह मन , उस मदन रसास्वादन को सदन होकर क्यों भरना चाहता है ... क्या गगरियों की भी लालसा है कि हमारी संरचना हो तो नवनीत-घृत आदि गौरस सँग लेपन कर ही देना । माटी के स्वाद में भी गौ रस होता है यह तो खण्डित मृदा पात्रों से लस्सी आदि पीते हुए पशु भी जानते है और जिन कालिंदी के तटों पर यह गगरियाँ भरी और प्रक्षालन की जाती है उन तटों की मृतिका में सहज सजीव गौरस मिलित ही है ... अन्नत वात्सल्य सुधाएं जहां तटों पर अपनी वात्सल्यधाराओं के अभिषेक हेतु आती हो वहीं ही सुरस रसास्वादी श्रीगोविन्द वपु निवास करते है । मदन भरित कहा जाता है मन ... और मदन की परिभाषा भी नहीं जानता है ... कोई मन । अतः कौनसा मदन री । मदन तो वें महाभाव वपु है जिन पर अन्नत गोप्य मधु रीतियों भरित रसिकों का मन अभिसार हो रहा है , मदन तो अनन्त रसों का व्यंजन (श्रृंगार) स्वरूप है ... । मन मोहित हो सकता है ... यह बन्धन मात्र जहाँ सुवासित है वहीं ही प्रकट है श्रीमदनमोहन । मात्र मन को मनवत् मानकर पी लेने वाले , परन्तु इस अभिषेक में मन गौरस या नवनीत सुधा हो सकता है अथवा अन्नत चन्दन आदि सुख उपचार हो सकता है और निजतम सुवासित स्वेद बिन्दु भी हो सकता है ... अथवा कोई ऐसा परिमल जिसे तुम या मैं अभी तक नहीं जानते , श्रीमदनमोहन का स्पर्शित मन अब निजतम सुखी तत्व है ... ज्यों किसी लता पर नन्हें खग निवास करते है और वहीं ही रहकर जीवन यापन करते है त्यों कृष्णवपुरूपी लता पर लीलार्थ आन्दोलित उन्हीं के स्वेद बिन्दुओं की माधुरियों में भरित मन । अब यह मन कुछ खोजता नहीं है और अन्य-अन्य पदार्थों की संगत से अपनी मिलन सुगन्ध को ही चखता है । अब इस मन के पँख है श्रीमनहर- प्राण .... !!श्रीमदनमोहन से मिलकर ही अमनिया हो पाता है यह ... तट- तट का तृषित मन । अन्नत विशुद्ध सत्व आदि से अभिसिक्त वपु श्रीमदनमोहन । अन्नत दुविधाओं के मधुर प्रेमोपचार वपु श्रीमदनमोहन । मन श्रीकृष्ण विचार से स्पंदित और तरँगित हो उठे तो इत्र वत प्रति स्पंदन को सेवाओं के रूप में सौंप दो ... इन स्पंदनों सङ्ग चित्र गुंथन करो या काव्य या पुहुप मालिका ... अथवा आलस में जंभाई भरो ... विचित्र आवेशों के इस रहस्य को तो यह वाष्पित होता मन ही जानेगा कि यह प्रेम रचना है क्योंकि यह श्रीललित प्रेम स्पंदन तो दुर्लभ ही है । मन को कहना कि श्रीमदनमोहन से सम्पूर्ण आवेशों सँग अभिषेक होकर मिलकर उसका क्या हुआ यह जानना है तो ... तृषित रहें । युगल तृषित । श्रीललिते । आज निज- मन को अतिव लाड से श्रीप्रियतम से भेंट कराना ।
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