केलि, युगल तृषित

केलि

पुष्प की पँखुडियों को कोई पागल हो कर ... ललित होती केलि (खिलती कलि) ... कोई निहारना झेल लें तो यह सुगोप्य केलि रहस्यमयता भीतर उतर सकती है । वरण व्याप्त है ही , बस भिन्न दशाओं के संयोंग या महाभावों के अभावों से स्पर्श नहीं है ।
 शब्दों में केलि स्पर्श उन्हीं को हो सकते है जिन्हें नाद में भी केलि स्पर्श होते हो और नित्यव्याप्त अपरिचित मधुर सहज ध्वनि रूपी नाद में केलि स्पर्श उन्हें हो सकते है जिन्हें वायु के रव-रव में उन केलियों का वर्द्धन और झरण अनुभव बनता हो , पवन के झोंको में जिनसे मिलने कोई सुगन्ध आ जाती हो । कोई अलबेली सी महक अचानक उन्हें छेड़ जाती हो । जो पक्षियों के कलरवों पर नाच जाती हो और नाचती तितलियों के लिए गा जाती हो । नयनों में भरे पावसीय या बासन्ती वन को जो चित्र रूप सुदृश्य कर सकते हो । प्रेमियों के कौतुक होते है केलिमय जहाँ एक विपुल समाज एक ही मनोरथ खेल सकता हो तो यहाँ द्वंद शून्य वह मधुर खेल का ललित स्वरूप केलि कथ्य है । केलि किन्हीं भी सहज तत्वों का पूर्ण विशुद्ध प्रसादित स्वरूप है ।  केलि मात्र निर्मलतम प्राणों पर प्रकट अभेद मण्डल का विलास दर्शन है कि कैसे कोई बीज वृक्ष रूपी यात्राओं सँग अन्नत पुष्प - फल एवं मधु आदि दे रहा है , वह बीज अगर यह रहस्य जड़ता या विकारों से खोजेगा तो उस रहस्यानुभूति को अनुभव नहीं कर सकेगा । जगत मात्र ईश्वरीय कौतुकों का छाया मण्डल है , अर्थात् किन्हीं दिव्यताओं के स्वप्न मात्र हम सभी है । अतः स्वप्न की यह वस्तु स्वप्नकर्ता के रहस्यों को नहीं छू सकती जैसे कि भविष्य में काल्पनिक मण्डल पर यांत्रिकी खेल (Virtual Reality) होंगे , परन्तु यांत्रिकी खेलों के वह पात्र मूल रचयिता के जीवन रहस्यों को उतना ही आत्मसात् कर सकेंगे जितना कि रचनाकार की अपनी इच्छा है । खेल के रचनाकार ने खेल की परिधियों को कितना ही स्वतन्त्र किया हो परन्तु स्वप्न की सत्ता मात्र स्वप्न तक है और हम सभी किन्हीं दिव्यताओं के स्वप्न भर मात्र पदार्थ है अतः मूल रचनाकार के निजतम विलासों तक यह स्वप्न का पुष्प भी आ पहुंचे यह रहस्य भंग हेतु प्रथम स्वप्न रूपी अन्नत ब्रह्माण्डों के अन्नत सोपानों को पार करना होगा । किसी खिलाड़ी की गेंद अगर उस खिलाड़ी के रहस्यों को जान सकती है तो हम भी केलि के रहस्यों को छूने की चेष्टा चाह सकते है , परन्तु खिलाड़ी ने उस गेंद को अपने निवास में कहाँ तक सँग किया होगा ... 
सुदर्शन चक्र और पाञ्चजन्य शंख आदि स्वीकार्य श्रृंगार या पार्षद जैसी महत्ता सामान्य खिलाड़ी अपने गेंद आदि के लिए समझ भी नहीं सकते ।  श्रीराम के बाण उनका विवाह मण्डप भी जानते है और श्रीश्यामसुन्दर की वेणु वृन्दावनिय निजताओं की परिधि मानती ही है । सामान्य खिलाड़ी अपने खेल को सर्वत्र सहज अधिकार नहीं ही दे सकता है ... अतः खिलाड़ी ही चाहें और अपने निजक्षेत्र में प्रवेश दे तो ही खेल की उस श्रृंगार माधुरी को वह सौभाग्य बन सकता है क्योंकि प्रत्येक बीज भी इतना समर्थ नहीं कि वह सहज अपनी यात्रा के रहस्यों को वृक्ष होकर पुनः प्रकट कर लें , बीज में वृक्ष की सत्ता निहित हो यह सामर्थ्य भी स्वकल्पित नहीं ही है । बीज में बीजत्व के भेद को पार करने की लालसाओं का विशुद्धिकरण मुखरित होता जावें तो खेल का केलि रहस्य झंकृत हो सकता है । केलि के अर्थ के लिये शरीर रूपी ज्ञात और अज्ञात ब्रहामंड का भेद गलित हो । 
अन्तस् स्वयं को जब तक भिन्नत्व अनुभव कर कोई आकृति समझें जैसे मानव । तब तक केलि सागर उदित नहीं होगा । 
क्योंकि केलि ललितकौतुक होकर भी खेल नहीं है । 
क और ख में जैसे द्वन्द है त्यों जीव स्वयं को भिन्न करता है क से और ख रूपी जगत बनाता है अब  अक्षर और उसकी अधिष्ठात्र शक्तियाँ यहाँ अपनी शाखाओं सहित सहायक होता ही है क्योंकि ख भी कहीं न कहीं अशुद्ध क ही है । तदपि ख जब क में ही पुनर्वास लालसा हेत शरणागत हो उनके ही विलास क्षेत्र में याचक होता है तब ख की यह पृथक द्वन्द स्थितियाँ कृपावत गलित होती है । क - दिव्य ललित भगवदीय धाम क्षेत्र है , तो ख - जैविक द्वन्दों से संसृत मण्डल । क रूपी कौतुक और सुगर्भित हो स्वर और स्वर से नाद में विलय होना चाहता है । ख रूपी दशा की एक विस्तृत यात्रा है जो कि कृपा में स्वत्व भँग लालसा से शीघ्र भी फलित हो सकती है । 
ख या आगे के विखण्डन चेतन का चिंतन प्राप्त देह आदि आवरणों को शाश्वत मानने से जो सहज शाश्वत दृश्य है उससे अभिन्न नहीं हो सकते । 
जैसे कि एक वाक्य ...मैंने तुम्हें छुआ ... 
अब तुम यहाँ हो कौन ... मात्र यह देह । अथवा कोई पुष्प या तृण या मणि आदि कुछ और भी । भाव पथिक प्राकृत आवरण से चिंतन नहीं कर , अप्राकृत रूप से श्रीयुगल विलास में सिद्ध ललित झँकन प्रसाद को पाकर अद्भुत ही संयोग झलकते है ... उनका भावाणु कोई क्षुब्ध बन्धनों में  अशुद्ध जड़ दशा नहीं होकर , दृश्य अदृश्य समस्त का सौंदर्य हो उठता है जैसे कि किसी चित्रकार का एक ही रँग फूल और मणि और नायिका के अँग आदि-आदि में निहित हो परन्तु भिन्न-भिन्न रोमाञ्च से वह अनुभूति नवीन-नवीन अनुभव कर और करा रहा हो । बीज को स्वप्न हो उठे कि उसे खग आदि छुवें , पुष्प आदि से वह भरा हो , फलों सँग झूमता उत्सव हो गया हो और बीज का वृक्ष हो जाने का स्वप्न फलित हो गया हो । — युगल तृषित । नित्य श्रृंगारों का भजनीय सँग ही नित्यता के कौतुकों की निजतम सुरस माधुरी खोल सकता है क्योंकि प्राणी-प्राणी की अपनी रसना आदि के पृथक् अनुभव है यह अनुभवों की पृथकता केलि नहीं हो सकती है । केलि तो श्रीविलासी सरकार का निजतम रसायन है और वह सामूहिक अनुभूति है ... विशुद्ध विलास परन्तु समस्त द्वंद शून्य । द्वैताई में निहित अद्वैताई रूपी ललित रसायन !! जैजै श्रीवृन्दावन !! श्रीवृन्दावन !! जब हम किन्हीं दिव्यताओं की मात्र स्वप्न सृष्टि (Virtual Reality ) है तो कैसे Real या Actual Reality को छू सकेंगे । अतः यहाँ वह साधन सँग में चाहिए जो कि नित्य और नवीन हो । कोई निजतम वास्तविकता (श्री स्वरूप के कोई श्रृंगार आदि) वरण करें तो उनके सँग से उनका होकर यात्रा बन सकती है । पुष्प होकर ही पुष्प की कलियों के निजोत्सव को छुआ जा सकता है ।

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