तेई हरि के पास हैं,जिनकौ हरि सौं भाव। तृषित

*श्रीकुंजबिहारी श्रीहरिदास*

*तेई हरि के पास हैं,जिनकौ हरि सौं भाव।*
*देही नाते सब तजै,हरि मिलिवे कौ चाव।।५५०।।*

अन्नत प्रेम सिद्ध विलासों के महाभाव प्राण-रस स्वरूप है ,  हमारे श्रीश्यामाश्याम । सभी ही लताओं - खगों एवं  प्रेममय मुग्ध प्राणियों के उच्छलित प्रेम मनोभाव सहज ही उनके ही निजतम कौतुक और स्वभाव है । 
भावमार्गियों की परम् आवश्यकता बननी चाहिए कि वें पूर्ण अभियोग और पूर्ण समर्पण सँग मात्र श्रीप्रियालाल के सुख की आकृति बनें । जैसे-जैसे उनके सुख की नवीन उछाल हो , वैसी ही हमारी हिय लहरियां नृत्य करती हो । हमें मात्र एक ही इच्छा हो कि हम वैसे ही हो जावे जैसे कि वें हमारे श्रीप्राण सहज ही है , उनके कौतुकों और रँग आदि को निजता से धारण किए बिना , उनका होना सरल नहीं है । ज्यों हमने इस प्रपंच और इसके पदार्थों को अपना मानकर इनसे सम्बन्ध स्थापित किए है , त्यों ही श्रीललित प्राण सरस मधुर सुकोमल श्रीपियप्यारी के प्रेम उन्मादों में हमारी गति-मति प्रकट होती हो । 
बाह्य सम्बन्धों का सङ्ग और रङ्ग भुलाए नहीं भूलता है , भीतरी विलास के सम्बन्धों में सहजता होने पर बाह्य सम्बन्धों का निर्वाह साधनाओं की तरह ही जटिल होगा । परन्तु अधिकांशतः हमारी क्रियादि भौतिकी तो सरल हो गई है परन्तु श्रीप्रियालाल के सम्बन्ध में हमारे भाव - कौतुक प्रकट नहीं हो पाते है । कहीं न कहीं हमारे भीतर पूर्ण विशुद्ध लालसा अथवा तृषा का संस्कार नहीं हुआ है कि हम इस जड़ प्रपञ्च को छोड़ने का अभिनय तो करते है परन्तु यह छूट नहीं पाता है जैसे कि हमारा श्रीप्रियालाल के लिए किसी पद आदि का गान मात्र भौतिकी गान की तरह ही प्रकट होता है जबकि वह वैसा प्रकट हो जैसा कि सहज श्रीविलासों में नित्य अलि सहचरियों सँग वें गहन और मधुरतम सुनते हो , वैसा ही नृत्य और वैसी ही मुद्रा आदि भी प्रकट हो । प्रायः प्राकृत य भौतिकी क्रिया आदि को ही सत्य समझ कर निवेदन किया जाता है जबकि स्मृति होनी चाहिए कि आहार विहार आदि विशेषण प्राणी मात्र में प्रकट है अतः श्रीलाड़िलीलाल के आहार और विहार को हृदय से संगत करना ही होगा । इस एक मात्र भौतिकी काया के जीवन क्रियाओं को ही हमने हमारी क्रिया मान लिया है । अगर कोई श्रीप्रियालाल की मरालिनी-मराल-लीला (हँस हंसिनी) सँग वैसे ही आकृति में उनके सँग निहित है तो सरोवरों का सँग भी वैसे ही बन पड़े जैसे कि सहज जलीय खग आदि को बन रहा है , ध्यान दीजिए कि हम बाह्य प्रकृति और इसके जड़ संस्कारों को कितने ही प्रयासों से विच्छेद नहीं कर पा रहे है अथवा हम इन संस्कारों को ही अपना यथार्थ मानते है और अन्नत प्रेमी रसिकों के प्राण श्रीलाडलीलाल श्रीश्यामाश्याम जैसे हाव भाव एवं विलास हमारे लिए स्वनिम कौतुक भर ही है । 
आस-पास के पदार्थो को देखें कि वें हमारे सुखार्थ अपनी आकृति और स्वभाव आदि परिवर्तन करते ही है । जब हम खीर बनाते है तो चावल भी अपना अहंकार त्यागते है और दूध भी अपना स्वाद चावल में भरते है । अतः परस्पर साम्य रसायन हुए बिना इस रस को छू पाना दुर्गम ही है क्योंकि बाह्य यह क्रिया आदि के सम्बन्ध भीतर से छुटे तो स्वयं की निजतम नित्य भावना का श्रीप्रियाप्रियतम से सम्बन्ध क्या है , यह अनुभव बन सकेगा और वह सम्बन्ध एवं उसके कौतुक श्रीप्रियालाल की भांति ही अप्राकृत ही होगा । हरि सौं भाव ... यह चाव हृदय में उछलने लगें कि हम उनके निज रस रँग में ढलेंगे तो ही उनके हो सकेंगे । मिलने के चाव (लालसा) को और प्रकट करना है कि उस चाव पर उनका रँग प्रकट होंवे । श्रीवृन्दावन । श्रीयुगल सरकार से विनय है कि सहज ही सभी प्रेमियों के भीतर अपनी सहजताओं और सरसताओं का उत्स संचार करें । बाह्य विच्छेद अत्यन्त सूक्ष्म और भीतरी हो और भीतरी सम्बन्ध ही प्रेमियों के हाव भाव में छलककर रसमयी प्रकट सेवादि होने लगें । युगल तृषित ।  *श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास*
।  जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । जैसे वें है ... वैसे ही होना होगा ...

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