इष्ट भोग चिंतन और भौतिक सम्बन्ध - trishit

*इष्ट भोग चिंतन और भौतिक सम्बन्ध*

भौतिकी प्राणी सम्पूर्ण जीवन स्वयं के  लिए नवीन भोग खोजता रहता है और उन्हें पाकर पुनः और नवीन भोग खोजने लगता है । बहुतांश भोगों की प्रदर्शनी भी लगाई जाती है जैसे कि विवाह समारोह में अनावश्यक अति संख्याओं के स्वरूचि प्रीतिभोज आदि । परन्तु भगवदीय सेवाओं में यह संख्याएं सर्वत्र सिमटी हुई ही होती है अतः सहज लीला चिंतन जटिल है क्योंकि लीलाओं का दृश्य स्पष्ट ही नहीं है अथवा अतिव सीमित या क्षीण है । 
भोग चिंतन में यही प्राणी बड़ा कौतुकी है जो कि एक छींक या जुकाम के लिए उनके पास सैकड़ों उपचार है परन्तु भगवदीय सेवाओं में और उनके चिंतन में अतिव निर्धनता ही है । 
ऐसे ही आजकल अन्नत सौंदर्य प्रसाधन प्रति अँग और भिन्न वेला या मौसम अनुरूप एवं अवस्था या स्त्रीलिंग/पुल्लिंग अनुरूप भिन्न और भिन्न होते जा रहे है अर्थात् आपके हाथों का साबुन और मुँह का साबुन अब लगभग भिन्न ही  है परन्तु विलासों के चिंतन में इतनी विविधता जो कि शास्त्रों एवं रसिक वाणियों में वर्णित ही थी उन्हें हम भुलाने पर ही है । 
कल्पित हो रही और सर्वत्र सहज सुलभ हो रही आर्टिफिशियल झांकियों में भी सेवात्मक निर्धनता सदृश्य ही है । स्वयं के लिए रात दिन भोगों के अनगिनत प्रारूप हमने जुटाए ही है ... संभवतः ही आपको याद हो कि कितने ब्रांड के साबुन शैंपू आपने प्रयोग किए होंगे परन्तु भगवदीय सेवाओं में आपकी गिनती में षोडश उपचार भी स्मृति में संभवतः ही हो । शास्त्रों से प्रकट राजोपचार और प्रेम से प्रकट प्रेमोपचार और सघन सेवा उल्लासों से प्रकट विलासोपचार के अन्नत सघन कौतुकों को पार कर कभी झंकृत हो सकता है विस्तृत नित्य वर्द्धित सेवात्मक उत्स । बहुतांश अपने ही जीवन के पदार्थो के भगवदीय सम्बन्धों से हमारी अनभिज्ञता है जबकि यह सरल है कि आपका ही उपचार या औषध आपके प्रेम का उद्दीपक हो उठे अगर उसके भगवदीय सम्बन्ध को आप अनुभव कर सकें परन्तु हमें अपने प्रपंच विस्तार में अनुभव ही नहीं कि किस तत्व का किस सन्दर्भ में क्या पूजन है ... समुद्री झाग या इंद्रजाल तक के दुर्लभ तत्वों को हमारी परम्पराओं ने पूजन हेतु सहज जुटाया हुआ था और आज हमारे लीला चित्रों में जो वन सदृश्य होते है वह लता या वृक्ष आदि ही भारतीय है कि नहीं यह हम समझ नहीं पाते ।
... कारण , मात्र स्वभोग संक्रमण से रोगमय जीवन । जबकि सनातन या वैदिक रीति का एक अक्षत कण भी सहज ललित तिलक का श्रृंगार तत्व रूप ही है । अपने जीवन में आए पदार्थो से पूछे , क्या उनकी परम्पराओं का भगवदीय सम्बन्ध में कोई सोपान है और अगर वह वस्तु भारतीय है एवं उपचार का ही कोई प्रारूप है तो वह अवश्य ही भगवदीय सम्बन्ध रखती भी होगी । यहां ध्यान रखें कि घृत भी ईंधन है जिसका भगवदीय सेवा या यजन हवन में सम्बन्ध है परन्तु पैट्रोल भी ईंधन है जिसका सीधा सम्बन्ध नहीं है अपितु वह हमारी ही आधार इस धरा का रक्त जैसा कोई रस होता अगर हम अति दोहन नहीं करते अर्थात् प्रकृति सहज सेवाओं से प्रसन्न होकर कुछ भेंट करती थी तो वह संजीवनी जैसा कोई उत्स हो सकता था । दोहन या शोषण से जुटाए पदार्थ से सेवा सिद्ध नहीं हो सकती क्योंकि सेवा प्रेममय पुरस्कार से प्राप्त होती है ...  बहुत से सेवा श्रृंगार तत्व अब अदृश्य ही है क्योंकि भोगार्थ ही दुर्लभ तत्वों का दोहन है ... आपके अपने सौंदर्य प्रसाधन में दुर्लभ तत्व होंगे परन्तु क्या आप उनका भगवदीय सम्बन्ध जानते है ,  अतः सेवार्थ अतिव क्षीणता ही है । किसी धार्मिक पण्डाल के प्लास्टिक या बिजली का खर्च बढ़ना ही धर्म वर्द्धन नहीं है ... क्या वहां औषधीय - हवनीय सुगन्धें या कदली आदि वृक्ष सहज सुदृश्य है ... ... ... सहज पण्डाल युग भेद कर सकता है अर्थात् आपको लगेगा कि सतयूग में आप आ गए है अगर सहजता की गोद में सहजताओं सँग सहजताओं के लिए उत्सव हो । जबकि हमारे उस कृत्रिम पंडाल में भगवदीय क्या सुख आदि प्रकट है , पंखों की संख्याओं से क्या ही अर्थ है विधाता को ... अर्थ सार्थक तो जब हो , जब प्रति कथा स्थल एक पीपल वृक्ष ही प्रारूपित हो उठे अथवा अन्य औषधीय कोई वन । कलश यात्राओं में निहित कितनी माताओं को पता है कि उस कलश में क्या-क्या होना चाहिए अथवा वह अर्द्ध जल से न्यून भरित मात्र है ... पूर्ण कलश के पात शुष्क क्यों होंगे । कलश के वह शुष्क पात कहते है कि हमें अपना ही अन्न आदि की ताजगी का चिंतन है । पूजन एक विधा है जीवन की जिसमें प्रकृति आराध्या ही है । वहीं प्रकृति जो मात्र भोग पदार्थ भर सँग है , हमें अब यह भी नहीं पता कि हमारे साबुन या दातुन में क्या कोई सहज तत्व है भी या नहीं । कैसे सम्बन्ध होगा ? क्योंकि उत्सवों का श्रृंगार कहाँ और कौन जुटा रहा है ... ? 
नित्य जीवन में अन्नत ऐसे तत्व या पदार्थ मिलते है हमें कि उनके स्वरूप और स्वभाव उनके ही आह्लाद से प्रकट होते जावे तो जीवन नित्य ही धन्य अति धन्य होता रहेगा । युगल तृषित ।
भौतिकी विज्ञान के पाठक केवल पाठक नहीं होंगे वह अपने अध्ययन के प्रयोग करेंगे और पुनः नई- नई विधियों से इस जगत की क्षमताओं को दोहित कर क्षति के खेल खेलेंगे । इस समुद्र मंथन में असुरों के पाले में कौन नहीं है ... ???

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