श्री प्रिया हृदय निधि - श्रीवृन्दावन , युगल तृषित
*श्री प्रिया हृदय निधि - श्रीवृन्दावन*
श्रीवृन्दावन श्रीवृन्दावन श्रीवृन्दावन अहा अहो ... श्रीवृन्दावन ... अहा अहो ... हो हो हो रि प्रेम पहौरि श्रीवृन्दावन ... । श्री किशोरी जू का हृदय ... प्राण ... साकार ... हृदय क्षेत्र .... विलास हेत ... प्रेम खेत ... हृदय रि हृदय ... प्रफुल्लित रससिक्त रसार्णव रससार आह्लाद का श्रृंगार महौदधि (महासागर) श्रीवृन्दावन ....। श्री रसिकों का केलिकल गान रूपी जयघोष ... श्री प्रिया जू का ही हृदय दर्शन है श्रीवृन्दावन ... सहजताओं में नित्य श्रृंगार भरित नवीन उत्सवों सँग विलसते श्रीअनन्त सुख सुखिता कौ उल्लास श्रृंगार । श्रीमहाभाविनि और श्रीरसराज की प्रीति सेवार्थ निज प्रेम हेतु सुखालय ... अनन्त सरस उत्सवों कौ धारित भारित करते श्री विलास निधि ... श्रीविपिन श्रीवनराज और श्रीप्रिया के हृदय से उच्छलित प्रेम के अनन्त महाभावों का मूल उद्गम क्षेत्र ... रस की कारण कार्या एवं कारिणि श्रीप्रीति रूपी महोत्सव का अभिसारण उत्स ... श्रीप्रिया का श्रृंगारात्मक अभिसार ... श्रीप्रिया का विलासात्मक महाभाव ... अनन्त अन्नत रस सरस विलास लास हुलास कुँज निकुंज से सुसज्जित श्रीविपिन ।
श्रीवृन्दावन का रस मति का नहीं मात्र केवल और केवल हृदय का विषय है और हृदय अर्थात् वह स्थल जिसमें मात्र रस निवास करता हो । प्रेमास्पद के प्रेम से पके हुए फल के रस की तरह मधुरता से भरा हुआ प्राण है हृदय ... सो मात्र हृदय में ही हृदयंगम होवे यह भावराज्य , हृदय में श्रीयुगल स्वरूप को उनके सरस ललित उत्सवों सँग ... विलास और बिहार सँग विराजने को उन्मादित हो उठे तो वह प्राण सहज ही विपुल प्रेम में भीगे होते है और वहाँ से सुदृश्य होते है श्री वृन्दावन ... श्रीविपिन युगल प्रेम से प्रकट उत्स है और श्रीविपिन के डाल-पात और फूल-फूल से गूँथते सुखों को भरने में श्रीयुगल प्रेम है । श्रीवृन्दावन शब्द मात्र रसिक श्रीश्यामाश्याम का विलास क्षेत्र है अतः यह श्रीवृन्दावन मात्र प्राकृत स्थान या भूमि भर का नाम ना है , यह तो श्री प्रिया के अनन्त प्रेम भावों का प्रकट श्रृंगारमय रसमय सरस निकुञ्ज लीला दर्शन है । भेद की सत्ता इस मायिक जगत में है , श्रीविपिन को दिया सुख श्रीप्रिया की ही सेवा है क्योंकि श्रीविपिन की कुञ्ज निकुञ्जन में श्रीप्रिया के हृदय की प्रेमास्पद सुख वर्षा ही सुसज्जित होती जा रही होती है ... श्री वृन्दावन श्री प्रिया प्रेम अभिसार ही है अतः वहाँ यह श्री प्रिया प्रेम ही अन्नत विलसते कौतुक रूपों में प्रकट है । श्री प्रिया जू का दिव्य प्रेम विलास राज्य (जो उन्हीं के हृदय भाव से व्यक्त हुआ है प्रकट हुआ है ) में श्रीप्रिया से भेद का कोई अस्तित्व ही नहीं ,श्रीविपिन प्रेममय श्यामाश्याम जोरी का निजतम सुंदर कोमल संकल्प ही है , और विलासों का उत्तरोत्तर प्रफुल्ल सुफल ही है ... अन्नत श्रृंगार अर्पण अर्पण और पुनः अर्पण ... श्रृंगारों की गुहाओं से निकलकर झूमते हिण्डोल भरते वें पियप्यारी और पुनः श्रृंगारों की वर्षाओं से पुलकित उत्स श्रीविपिन है ... अतः फिर वह प्राकृत प्राणी का आश्रय-विषय कैसे हो , क्योंकि श्रीविपिन तो नित्य बहुत सी कुञ्ज निकुंजों में पियप्यारी से मिलते पुलकते-बिहरते ... छूहते-जुहते ... थामते हुए भी विपुलताओं के कारण नयनों से छुटते ... सहज ही सुगंधों से प्राणों में झूम झूम खिलते ... झूमते - झूमते विलास वन ... बहते - उड़ते नवीन श्रृंगारों को भरकर - भरकर घन सघन घन ... श्रीवृन्दावन ... श्रीवृन्दावन के श्रीप्राण - उत्स सहज ही श्रीरसिक जोरी की सरस सेवाओं में निज प्राण निवेदन कर ... सहज ही उनमें प्रफुल्ल कैशोर्य उत्स भरने को ललित तृषाओं मे रहते है । श्रीविपिन श्रृंगार रस के स्वरूप स्वभावों की रुचियों का विलासों के प्रेमोपचार सजाते है ... अर्थात् प्रेम के सेवा कौतुकों के रूप में श्रृंगार हो उठने की ललित मनोरथों का ही फल है यह श्रृंगार रस और श्रीसखियाँ अपने नवल सुन्दर प्राणों को यह निजतम सुख उन्हीं के उल्लास संस्पर्श से करती है अतः श्रीवृन्दावन ही प्रेम की रहस्यमया श्रीलता है और वें ही आनन्द- विनोद - रस - श्रृंगार - रति - रङ्ग - सारङ्ग विनय - मान - मनोरथ के रूप है। जिस हृदय में श्रीवृन्दावन का संस्पर्श भी लालसा हो उठता है ... उसे आवश्यकता है श्री प्रियालाल के निजतम सुख की और वह ही नित्य प्रेममय श्रीयुगल के सुखधाम है ... श्रीधाम । श्रीवृन्दावन ... श्रीधाम ... श्रीवृन्दावन कहने भर को श्रीधाम नहीं है , श्रीप्रिया के निज उत्स वहाँ कुँज-निकुँज , वृन्दपरिकर , भावसमूहों की रँगभरी रंगीली कुञ्ज निकुञ्ज , सेवालालसाओं हेतु नवीन रसीले श्रृंगार कौतुक , परिकरों की प्रेमसेवा में झूमते रहते है ... श्रीप्रिया के अन्नत सरस भाव श्रृंगारों की झूम से स्पंदित श्रीक्षेत्र । प्रियाप्रियतम का परस्पर रसमय मिलन और प्रियाप्रियतम के मिलन हेतु प्रकट अन्नत विलासोत्सवों में निज रमणियों का हृदय आह्लाद का श्रृंगार आदि रूपों में दर्शन भी श्रीवृन्दावन है ,, ... साकार होते प्रेम के आकार के कारण-स्वरूप और स्वभाव है श्रीवृन्दावन । सहज प्रेम अगर सहज सरस आकार लेता है तो वह आकार ही पर्याय है श्रीवृन्दावन का । श्रीप्रिया चरण चिह्न हो या श्रृंगार रूपी कोई नूपुर ही ... वें सभी श्री विपिन के ही प्रेम-रस फल-फूल है । समस्त परिधान , समस्त दृश्य का क्षेत्र और समस्त सेवा विलास सभी ही कुछ श्री वृन्दावन ही है । मिलित - विलसित-वर्षित रस , और अनन्त सेवामय लोलुप्त हृदयों में ... ना ठहरती प्रेमाह्लाद की लहरें ... यह सब परम अभिन्न हैं ... श्रीप्रिया के निज हृदयोत्सव से और श्री श्रीवृन्दावन श्रीनिज और श्री श्रीनिज हृदय के कम्प - कम्प के प्राणोत्सव है ... अकथनीय ऐसा रस जिसकी परिभाषा देने के लिए कोई चेतना सामर्थ्य नहीं बना सकती क्योंकि यह नित्य बिहारिणि बिहारी जू का ही बिहार रस है । श्री प्रियाजू के हृदय का अनन्त मधुर विस्तार होता सुखसागर ही हैं ये सब ... हृदय से हृदयों के हृदय श्रीश्यामाश्याम को सुख देने के लिये कोई हृदय चल पड़े तो वह स्थिति होती है फिर मिलित सरस हृदयों का हृदय , श्रीवृन्दावन । सरस हृदय के श्रृंगार ही है फूल-भृमर घन-मोर मृग और बंकिम वीथि-विचियाँ , श्रीप्रिया की निज रति प्राप्त रेणुका भी रत्नों के विलासों से दिव्यतम है क्योंकि वह रसमय - मधु - कोमल - सुरभित - लहराती - गाती - नाचती - उन्मादिका श्रीकिशोरी की झारित कृपा-पंक ही है , जिस रेणु के ध्यान मात्र से हृदय पंकज हो उठता है ... श्रीविलासिनी जोरी के श्रीचरणों का आश्रयसुख हो कर । चूँकि श्रीप्रिया हृदय से ही विपिन का उद्गम अभिसार है तो श्रीविपिन का सेवन भी अलबेली परिकरियाँ और पदरति लोलुप्त स्थितियां फूलों पर बिहरती भृमरी - अलिवत् कम्पन सँग करती है क्योंकि दासी ... श्रीप्रिया की दासी सुखविलास को प्रिया हृदय कौतुकों का उन्माद पाकर पद धरने में असमर्थ हो कर निज-चरणों में पँखों सा स्पंदन सँग अनुभव कर श्रीप्रिया हृदय में बिहरने का सामर्थ्य जुटाया करती है । श्रीराधावल्लभ शतनाम में आपने सुना ही है कि दण्डवत या शीर्षासन या रेंगकर चलना चाहिए था इन प्राणेश्वरी हृदय की गहन निकुँजों में ...श्रीप्रिया हृदय के सघन विपिन की गहन मीठी सुगन्धित वल्लरियों पर विलसित श्रृंगार-अमृत को पीने को उतावली नागिनियों पर हृदय बलिहार हो उठता है कि वह जीवन पर्यन्त दण्डवती रह पाती है । अचर तो वहाँ कछु है ही नहीं , केवल ललित प्रेम ही लीलाओं की रसात्मकता को रसानन्द हितों से सजाकर झूम रहा है । श्री प्रिया का हृदयरस सार विपिन इतना कोमल मधुर रस है कि प्राणियों के लिये संकल्पित नहीं हो सकता , यह तो केवल गोप्य श्रीकृष्ण पद से श्रीकृष्ण हिय रति रूपी श्रीप्रियापद-अनुराग में डूबकर जब श्रीप्रिया को किंकरीवत श्रृंगार-सुख देने के लिये प्रस्तुत होने की लालसा में कोई सौम्य हो उठे ... तब ही वह महाचैतन्य या विशुद्ध सत्व अथवा भावदेह इन श्री श्रीविपिन का भावाणु-स्पर्श हृदयंगम कर पाती है । महाचैतन्य सुख तो उत्सवमय श्रीमधुर युगल का तीव्र उन्माद है , सो यहाँ से जो चैतन्यता दान होती है वहाँ से नित्य चिन्मय प्रेम का अद्भुत मधुरत्व सँग हो उठता है । जिससे प्रत्येक मधुकणिका सँग तुम मञ्जरी ... श्रीप्रिया रूपी माधुर्यसुधा निधि के हृदय प्रेम से भावित हो खिंची चली जाती हो ... ज्यों जल की बिन्दु को धारा सरक कर अपनी ओर मिलाना चाहती हो ... त्यों यह मधुसरिता मधुराग से ... हृदयों में अनन्त फूलों के सुरभित पराग को पीते पीते हुए भृमरों का गीत पढा देती हो । जिस महान सौन्दर्य से श्री वृन्दावन जगमगा रहे है वह श्रीनवलकिशोरी के दिव्यातीत मधुललित हितमय (निजहियभाव) का सौंदर्य से ही भासित - प्रतिभासित - आभासित विलास है , ज्यों लोम - विलोम - प्रतिलोम सुख गहन होता त्यों श्रीविपिन केलियों से केलियों के नवीन कौतुक पी-पिला रहे होते है । जिस महिम सुरस माधुरिमा का सीकर(बिन्दु) पाने को ब्रह्मा - शिव - नारद - उद्धव आदि सभी लालायित हैं ... वह अद्वितीय सहज प्रेमरस श्री प्रिया के हृदय का ही परम उज्ज्वलरस नवनीत शरदचन्द्र विपिन तो ललित लालसाओं का निभृत लालित्य (लाड) मिलना है । अनुपम मिलनोत्सव है श्रीवृन्दावन ... । । अणु - अणु , बिंदु - बिंदु , रोम - रोम उन्हीं महासिंधु नित्यहृदया की निज माधुरी वर्षण के क्षण - क्षणिक प्रति उन्माद है ... श्रीवृन्दावन । श्री ... श्रीवृन्दावन की रसमयी सुगंधित समीर , सौम्य-प्रकाश , सरस शीतल रसनीर , वृक्षावली-लताएं पुष्प कलिकाएँ और कहाँ तक कहा जाये ... यहाँ तक कि पराग का नन्हा - नन्हा सा कण भी ... श्री प्यारी जू के हृदय का परम प्रेम भाव ही है सो सबमें नवीन सहज मधुता भरी हुई है ..अहा मधु फौवारे झारती लता-वल्लरियाँ । सबहिं सखिगण सहचरियाँ - किंकरियाँ - मंजरियाँ - दासियाँ आदि - आदि अनन्त रस परिकर स्वयं श्रीवृंदावनेश्वरी के हृदयगत भाव ही तो हैं साकार - प्राकार(महल) हो उठे है । अहा अहो अहो रि अहो !कैसा मधुराग रसवर्षण सुन्दर प्रेमराज्य वह श्री श्रीविपिन श्रीरस विपिन ... जहाँ जहाँ अनन्त रस , पुष्पों का रूप लेकर केवल सुगन्ध ही नहीं वरन भाव की कोमल , शीतल , मधुर सुगंध पराग को नित्य श्री प्रियालाल की सेवा में आतुर हो ... सरस झूम से पिघलती - हारावली होकर लेपन हो उठने को परिमलित राग हो उठता हो और युगल के प्रत्येक मधुर परस्पर दर्शन - स्पर्श से इन सेवामय सरस पुष्पों का रस - सौंदर्य - सुगंध - लावण्य सहस्त्र गुना हो उठता हो ...और सघन श्रृंगार घन न सम्भलने से हो उठती परागित - सुरभित मधुरस-वर्षा । जहाँ सर्व सखीवृन्द मंजरीगण श्रीयुगल के परस्पर - सुखों की गूँथन की सेवा - लालसा वृत्ति की अनन्त लास्यभरिते - सौंदर्यमये लावण्यमयी ललित - मधु इष्ट प्रतिमाएं है । श्रीयुगल की रसमयी सेवाओं की सुख वर्द्धन लालसा ही मात्र स्वरूप इनका और श्री युगल के प्रत्येक रसनिमज्जन से शत् सहस्त्र गुणा वर्द्धित होता इनका सौंदर्य लावण्य और पुनि-पुनि श्रृंगारित श्रीविपिन । हमारे श्रीयुगल नित्य नवल नित्यकिशोर हैं जो कैशोर्य का वर्षण श्रीवृंदावन की कणिका-रेणुका पर कर रहे हो और ...पुलकते फूलों सँग नाचते खग-भृङ्गियों में नित्य नवल रसमय नवल सौंदर्य के खिलते फुलते झूमते सुखसाम्राज्य श्रीविपिन । युगल तृषित । श्रीप्रिया जू का होकर ही श्रीवृंदावन का होना संभव है , और विपिन सुखों सँग ही श्रीप्रिया का सहज रहना सम्भव है । श्रीपियप्यारी के मधुर अनुराग श्रृंगार श्रीविपिन । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । श्रीवृन्दावन । जिन्होंने निवेदित भावों को सुना भी हो .. वह इस पठन को देख भी पाये होगें ।
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