एक बस्ती सोची थी
गांवों में मेरा मन्दिर रहा
कस्बों से मेरी यारी रही
और ज़िन्दग़ी शहरों के
तलवे चाटती रही !!!
एक बस्ती सोची थी
जिसकी रूह गांवों के
खेत की सुबह से चुराई हो
एक बस्ती
जिसका ज़ुनून कस्बाई हो
शहरों की धूल हटा
झील की पुर्वाई की नमी हो
एक बस्ती
जहाँ ईमारतें एक ना हो
बस घर ही घर हो
हर देह अतिथिगृह हो !!!
एक ऐसी बस्ती
जहाँ पलकें झुकती न हो
जहाँ मुस्कान हटती न हो
जहाँ गुरुर की खनक न हो
जहाँ शहरों का शोर न हो
जहाँ परिन्दों की सुनते सब हो
एक अदद तलाश
तुम तक ले आई
पर अब भी शहरों का खौंफ
द़िल से पूरा सा हटा नही है !!
सफ़र अब शुरु हुआ है
तृषित अब किसी के संग है !
जो जाना
जो माना
तेरा होकर
सच जाना ... "तृषित"
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