यादें और मकां

मकां ...
अब क्यों उस मकां की यादें नहीं आती !
जहाँ ज़िन्दगी एक क़िताब बनी !
बहुत कुछ दिया उस मकां ने
पर जब लिया सदा ख़ुद कर्ज़दार हो गया !
बचपन की सलवटें
कब की सिसकियों में दफ़न हो गई
याद नहीं कुछ वो मासुम बचपन
जब भी यादों के गलियारें से गुजरता हूँ
वहीं टूटी सीढियाँ बीच में होती है
और यादें बेबस कल से आज पर लौट आती है
कभी कभी लगता है न जाने कब मैं
मासुम बच्चा हुआ करता था !!
जो हाथ कल लाड से बदन पर फिरे
अब उनकी आहटें ही डराने भर को काफी है
बहुत कुछ ... बहुत ज़ल्द होता गया !
अब वो किताब हूँ जो ख़ुद कभी न पढना चाहे

मकां ...
तेरा क़सूर बस इतना था
तेरी तस्वीर उधडे ज़ख़्मों से
लिबास हटा लेती है ...
एक व़क़्त मैं बिखरा और तुम रहे
अब एक व़क़्त तुम बिखरे और मैं ...

कभी-कभी लगता है
तुमने बहुत सम्भाला भी ...
जब जब तन्हाँई में आंसु गिरे
तब इन दीवारों से ही
लिपटा करता था !
कभी माँ तो कभी मित्र भी रहे तुम !
बहुतों बार हम दोनों ही खेल भी खेलें
पर
आज उन सब रंगों पर कालिख है
तुम से अब जैसे कोई नाता नहीं
ना जाने हम इतने दूर कब हुये ...

हम दोनों आज मलबे की कुछ परातें भर बचे है
कल तुम भी बनोगें
और शायद मैं भी ...
पर तब हम कहाँ "हम" होंगे !
"तृषित"

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