खण्डहर
खण्डहरों में क्यों भाग कर
छिप जाने का दिल करता था
भरे पूरे घर से बेहतर क्यों
खण्डहरों के जाले हटा कर झांकने की तलब ...
कुछ तो ख़ास होता है उन बिखरी दीवारों में
एक एहसास हवेली से खण्डहर होने का ...
एक सच छिपा है उनमें आज की ईमारतों का
और अबोध बचपन जब भी भागा सच की और भागा
इस मासुमिय़त से किसी का गहरा नाता जो है
खेंचता है जो अपनी और ...
सबकी मनाही पर फिर भी
नन्हें पग खण्डहर की और भागते
कुछ न था वहाँ खाली पन के सिवाय और गुनगुना सा भय
तलब चमगादडों से लुकाछिपी की
जैसे वें नाच ही उठती ...
यहाँ से वहाँ ....
जैसे उस हवेली में हुआ
कोई विवाह जी उठा हो !
आज भी खण्डहर हवेलियाँ देख
भीतर तक जाने का बहुतों का द़िल है !
गहरी दास्तां और गहरा दर्द है उन हवेलियों का ...
ज़िन्दग़ियाँ सुकुं तलाशती
आगे निकल जाती है ...
छुट जाते है तो "खण्डहर" तृषित
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