.... थोडा और ! कविता
किंचित् नहीँ विशेष
जब कभी संगीत आवेग से
बेसधे तार तृषित बजे
बहुतों ने कर्ण पर कर पट धरे
और कुछ दबे ठहाके सहते चले
पर तब भी किसी ने कहा ....
थोडा और !!!
दृष्टि खुली , कोई तो नहीँ था
पर तब क्यों रुका ही न गया
कुछ और हँसे , और वो कहते चले
.... थोडा और !!!
यूँ नृत्य से भय भी रहा
तीव्र संगीत कम्पन पर
रोम भी स्पंद ना किया
जब जब महफ़िल में
किसी रोमांच से यें तनमन
नांच उठा ।
बना बनाया रौब सब बिखर छुटा
कोई भीतर कोई बाहर हँसा
किसी ने उनछवियों को
सहज हास्य का योग समझ, समेटा
तब भी किसी ने कहा ...
थोडा और .......
तब पूछना था , कौन हो तुम
और क्यों तुम मुझपर हँसते नहीँ !!
पर नहीँ .....
आदेश ही यूँ पूरा हो चला ....
जितने क़दम चला
फ़क़त फिसल कर चला !
अभिनय के मंच पर
हमेशा ग़लत ही रहा !
कभी छंद तोड़े , कभी अलंकार मोड़े
राग रागिनी के सलिके सब बिखरे
पर कोई कहता ही रहा ...
....... थोड़ा और !!
और जब जब दिल ने
सितम के बाँध तोड़े
सिमटती सरिता ने नैन की
ओर रुख मोड़ें तब भी
झरझर गिरती धार को
झरना समझ फिर उसने कहा
थोडा और ....
आखिर कितना ?
और क्यों ?
कौन था वो ?
कभी उतना ना सोचा
हाँ कही अटकते शब्दों को
सुन यें भी ओझल न हो जाएं
चुप रह , बस !!
....... थोडा और ही सुना !!!
पर नहीँ
ऐसा कुछ ख़ास नहीँ !
कोई नई बात भी नहीँ !
कोई पक्की सौगात नहीं !
तालों की कोई जरूरत हो
ऐसी चाबियों में मन उलझा भी नहीं !
किंचित् नहीँ विशेष !
परन्तु कोई है जो छुटता नहीँ निमेष !
अफ़ीम की तरह हूँ
मन्दिरों में जा सकूँ ऐसा पुष्प भी नहीं !
फिर भी कोई है
जिसे ना जाने क्यों ?
....... परहेज़ ही नहीँ !!!
सत्यजीत "तृषित" !!!
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