माटी क्यों खाई

सच्चिदानन्द आनन्दकन्द परमब्रह्म श्रीकृष्ण अपने भक्तों को सुख देने के लिए ही इस पृथ्वी पर अवतरित हुये हैं। भगवान श्रीकृष्ण की सभी लीलाएं बड़ी अटपटी हैं। उनसे अनेक बार ब्रह्मादिक देवता भी भ्रम में पड़ जाते हैं। इन लीलाओं में ऐसी शक्ति है कि सांसारिक विषयों में फंसा मन अनायास ही संसार को भूल जाता है और श्रीकृष्ण से प्रेम करने लगता है।

श्रीकृष्ण और माँ यशोदा में होड़ सी लगी रहती। जितना यशोदामाता का वात्सल्य उमड़ता, उससे सौगुना बालकृष्ण अपना और लीलामाधुर्य बिखेर देते। इसी क्रम में यशोदामाता का वात्सल्य अनन्त, असीम, अपार बन गया था। उसमें डूबी माँ के नेत्रों में रात-दिन श्रीकृष्ण ही बसे रहते। कब दिन निकला, कब रात हुयी–यशोदामाता को यह भी किसी के बताने पर ही भान होता था। इसी भाव-समाधि से जगाने के लिए ही मानो यशोदानन्दन ने मृद्-भक्षण (माटी खाने की) लीला की थी।

एक दिन श्रीकृष्ण बलराम व अन्य गोपों के साथ घरौंदे बनाने का खेल खेल रहे थे। जो अपनी इच्छा से कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड बनाया-बिगाड़ा करते हैं, उसका घरौंदा अन्य बालकों से अच्छा नहीं बन पा रहा था। बहुत समय बीत गया पर श्रीकृष्ण का घरौंदा अच्छा नहीं बना। भोजन का समय हो गया और सभी बालक भोजन के लिए घर जाना चाहते थे। पर श्रीकृष्ण अच्छा घरौंदा बनाने की जिद करने लगे और खीझते हुए कहने लगे–’मैं यहीं माटी खाऊंगा और घरौंदा बनाऊंगा। जब तक अच्छा नहीं बनेगा, उठूँगा नहीं।’ हठ में आकर उन्होंने सचमुच माटी खाली।

श्रीकृष्ण ने माटी क्यों खायी?

श्रीकृष्ण के मिट्टी (माटी) खाने के अनेक कारण बतलाये गये हैं, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं–

–भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि शिष्ट पुरुष जब घी आदि स्निग्ध पदार्थों का सेवन करते हैं तो हाथों की चिकनाई हटाने के लिए मिट्टी लगा लिया करते हैं। अत: श्रीकृष्ण ने भी पहले माखन खाया अब माटी खाकर मुँह साफ कर लिया।
–वैद्य लोग कहा करते हैं कि ‘विषस्य विषमौषधम्’ अर्थात विष ही विष की दवा है। विष मिट्टी का ही विकार है। भगवान ने सोचा कि पहले पूतना का विष पीया अब मिट्टी खाकर दवा कर लेनी चाहिए।

–भगवान जो भी लीला करते हैं वह अपने भक्तों के कल्याण या उनकी इच्छापूर्ति के लिए करते हैं।  भगवान के पेट में जो बहुत से लोक हैं, वे चाह रहे थे कि हम लोगों को व्रज की माटी (रज) मिले । वह रज जिसका सम्बन्ध गोपियों व गायों के चरणों से है और जिस रज को पाने के लिए ब्रह्मा व श्रुतियां भी लालायित रहते हैं, भक्तवांछाकल्पतरू भगवान ने व्रज की माटी खाकर व्रजरज उन तक पहुँचा दी।
–श्रीकृष्ण ने विचार किया कि मुझमें शुद्ध सत्त्वगुण ही रहता है, पर आगे अनेक राक्षसों का संहार करना है। अत: दुष्टों के दमन के लिए रजोगुण की आवश्यकता है। इसलिए व्रज की रज के रूप में रजोगुण संग्रह कर रहे हैं।

–पृथ्वी का एक नाम ‘रसा’ है। श्रीकृष्ण ने सोचा कि सब रस तो ले चुका हूँ अब रसा (पृथ्वी) रस का आस्वादन करूँ।
–पृथ्वी का नाम ‘क्षमा’ भी है। माटी खाने का अर्थ क्षमा को अपनाना है। भगवान ने सोचा कि मुझे ग्वालबालों के साथ खेलना है, किन्तु वे बड़े ढीठ हैं। खेल-खेल में वे मेरे सम्मान का ध्यान भी भूल जाते हैं। कभी तो घोड़ा बनाकर मेरे ऊपर चढ़ भी जाते हैं। इसलिए क्षमा धारण करके खेलना चाहिए। अत: श्रीकृष्ण ने क्षमारूप पृथ्वी अंश धारण किया।

–भगवान श्रीकृष्ण को अपनी मां को अपने मुंह के अन्दर सारे विश्व की सृष्टि दिखानी थी। इसके लिए उन्हें रजोगुण की आवश्यकता थी अत: माटी खाकर रज का संग्रह कर रहे थे।

–भगवान व्रजरज का सेवन करके यह दिखला रहे हैं कि जिन भक्तों ने मुझे अपनी सारी भावनाएं व कर्म समर्पित कर रक्खे हैं वे मेरे कितने प्रिय हैं। भगवान स्वयं अपने भक्तों की चरणरज मुख के द्वारा हृदय में धारण करते हैं।
–पृथ्वी ने गाय का रूप धारण करके श्रीकृष्ण को पुकारा तब श्रीकृष्ण पृथ्वी पर आये हैं। इसलिए वह मिट्टी में नहाते, खेलते और खाते हैं ताकि पृथ्वी का उद्धार कर सकें। अत: उसका कुछ अंश द्विजों (दांतों) को दान कर दिया।

गोपबालकों ने जाकर यशोदामाता से शिकायत कर दी–’मां ! कन्हैया ने माटी खायी है।’ उन भोले-भाले ग्वालबालों को यह नहीं मालूम था कि पृथ्वी ने जब गाय का रूप धारणकर भगवान को पुकारा तब भगवान पृथ्वी के घर आये हैं। पृथ्वी माटी, मिट्टी के रूप में है अत: जिसके घर आये हैं उसकी वस्तु तो खानी ही पड़ेगी। इसलिए यदि श्रीकृष्ण ने माटी खाली तो क्या हुआ?

‘बालक माटी खायेगा तो रोगी हो जायेगा’ ऐसा सोचकर यशोदामाता हाथ में छड़ी लेकर दौड़ी आयीं। उन्होंने कान्हा का हाथ पकड़कर डाँटते हुये कहा–‘क्यों रे नटखट ! तू अब बहुत ढीठ हो गया है। तू अकेले में छिपकर माटी खाने लगा है? तेरे सब सखा क्या कह रहे हैं? तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो सखाओं की ओर से गवाही दे रहे हैं।’

मोहन तें माटी क्यों

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