ख़ुशबूं , तृषित

आप की खुशबुएँ क्यों इस तरफ इतनी आती है
हमने तो सोचा न था माटी भी चाँदनी खेंच लाती है

वो कौनसा लम्हां था जो धुंधला ख़्वाब सा छा गया मुझमेँ
तारों की ओढ़नी संग रात क्या याद दिलाने आती है

कुछ तो संग चल रहा था एहसास बनकर दिल में आहिस्ता-आहिस्ता
तमाम तकलीफ़ें ख़ुद ना रहने में बारिश में नम हो जाती है

पतंग तो नहीँ हूँ , ना ही पर ही कहीँ मेरे दीखते है
बिन डोर फिर यें कैसी उड़ान दिल में भर जाती है

सोचा लिखु खोई आख़िर क्या चीज़ जो यादों में अक़्सर होती है
सब कुछ पर अपना अब नहीँ , इस मर्ज़ में अपनीयत ही खो जाती है

ताज़ुब तो जब होता है जब मेरा शीशा मुझे नहीं पहचानता है
अज़नबी सा एहसास अपने चहरे में , छु लूँ तो हया आ जाती है

ऐसा लगता है किसी की दहरिज दिल लोभान सा जलता है
पर फिर भी ख़ुशबूं कोई सुर्ख़ अज़नबी दुनिया की बिखर जाती है

ग़र कहू यह मैं नहीँ अब इस तरहा पिघलती सी बर्फ़ की तरह
ना जाने किस शरबत में कब घुली , एक नई सौंध मिठास कभी आती है

मिलन की ख़ुशबू ग़ज़ब की होती है तृषित उन सांसों में
वरना पानी भी था और माटी भी बारिश बाद ही ख़ुशबूं क्यों आती है

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