सन्त सँग अथवा निज लोभ
निज स्वार्थ के लिये गए सन्त सँग से उत्तम है , पँचर की दुकान खोल ली जावें ।
सन्त सँग वही करें जो उनकी सेवा में डूबना चाहता हो और वह सेवा किसी अन्य लालसा से भरी न हो ।
जो सन्त सँग किसी भी ताप निवृत्ति के लिये करते है , वें वस्तुतः उड़ते हुए पँछी है जो जल देखकर उतरते है ...पिया ...सुस्ताये और उड़ गए । यहाँ उस तड़ाग (तालाब) की महिमा है , पँछी कोई सेवार्थ नहीं उतरे है ।
(लेकिन भाव छुपाने की आज्ञा रसिकजन की)
.. .... जो यह बात मान ले सबसे पहले वह वो ड्रेस कोड छोड़ेगा जो सिद्ध करता है कि मैं सिद्ध हूँ अथवा साधक हूँ ।
डॉक्टर को छिपाना हो कि वह डॉक्टर है तो सफेद कोट पहनना छोड़ दे । अपने ही नाम के आगे डॉ. लिखना छोड़ दे ।
अध्ययन पूरा करें पर उपचार न करें ऐसा कोई डॉक्टर मिलना कठिन है तो छिपा हुआ सच्चा साधक मिलना भी कठिन ही है ।
आज आप किसी बौद्ध भिक्षु से अधिक अध्यात्म किसी याचक (भिखारी) से सीख सकते हो ।
क्योंकि दूसरी अवस्था में कर्तत्व का बोध नहीं है ।
सन्तों के पास बहुत सरल सहज सेवक होते ही है ।
कारण --- श्रीप्रभु ही सर्व रूपेण सेवा लालसा की सजीव मूल मूर्ति है , वह निश्चित ही स्वयं सेवामय रहते ही है वहाँ । सरल ही सरल को सरल सेवा दे सकता है ।
शेष प्रपञ्च दो घण्टे सन्त के पास बैठ कर भी मैं को सिद्ध कर के ही बाहर निकलते है ।
जैसे ....जानते हो मैं दो घण्टे लगातार इतने दिव्य पुरुष का सँग कर चुका हूँ ।
सहजता जीवन मे उतरने के उपरांत लोक में किसी वस्तु हेतु कदम गिरे तो वह है --- सेवा ।
मन्दिर की घण्टी बजाकर दो मिनट नेत्र बन्द कर जो नित्य मन्दिर जाता है , भारत में वही नहीं छिपा सकता अपने आध्यात्म को । वह भी कहीं न कहीं उपदेश दे सकता है ।
आध्यात्म (भाव) को छिपाने की कला भी श्रीयुगल ही सम्पूर्ण जानते है ।।
वास्तविक साधक सदा याचक होता है और सदा ही सेवक भी होता है , तो बडी सहजता से उसके निज भाव उससे ही छिपे होते है ।
इसलिये मन्दिर के पुजारी से भी अधिक चप्पल सम्भालने वाले शुद्र सेवक के प्रति आभार भीतर भरा होना चाहिये । परन्तु वर्तमान साधक का आभार भी थोड़ा क्वालिटी का होता है तो यदा-कदा ही रौबदार के सन्मुख ही प्रकट होता है ।
वस्तुतः बहुत भटकने की बहुत आवश्यकता नहीं । प्राप्त जगत सेवा हेतु ही प्राप्त है , हम देखते है कहीं घावों पर दवा नहीं है तो कहीं पानी के बर्तन को 5 बार मांज रहा है जगत । यह असंतुलन ईश्वरीय नहीं है , यह हम ही फैलाते है ...सेवादारों की नहीं राजशाहियों की सेवाओं को उमड़ते है । प्राप्त सेवा अवसर को अति लघु हो हम निभा लें तो वह सेवा भीतर जो अवसर देगी वह दुर्लभ होगा । सुनीचता धारण करने हेतु प्राप्त स्थिति में , प्राप्त भव के सेवक होना होगा ।
मेरे घर की चींटी मेरे ही घर से सेवा जुटा लेती है । इसलिये वह सहज ही परम से अभिन्न हो जगत श्रृंगार की नन्हीं श्रृंगारिका है । जबकि मेरी इस लोक श्रृंगार में कोई भूमिका नहीं ।
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