लालसा और आस्वादन , तृषित
सम्पूर्ण जीवनों के जीवनपुँज श्रीप्रियाप्रियतम के सरस् भाव जीवन को सुगन्धित कर देने वाला कोई कोई ही जीवन होता है जो भावप्रीत का आह्लाद भरा समुद्र भीतर कुछ कुछ अनुभव कर सकता है ।
जीवन की निजता श्रीयुगल के आनन्द और रस से ही आह्लादित होवें तब ही इन नित्य अभिन्न सेवाओं के द्वार खुलते है ।
पृथक आस्वादन की चाह कभी मधुशाला के निज अनुभव रूप में खुलती नहीं है , यहाँ सम्पूर्ण सुख उनमें ही दृश्य और श्रवणवत अनुभवित होंवे । उनके सुख से पृथक सुख का आस्वादन ही सेवा रूपी अभिन्न प्रवेश की बाधा है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी
लालसा का अर्थ - प्रेमास्पद का सुख पोषण होंवे - लालसा घनिभूत अनुभव में समेटिये । अनुभव विशाल होता जायेगा । और उसकी हानि लालसा अभाव से ही होगी अन्यथा अनुभव गहन अति गहन होता जाएगा । तृषित ।
जयजय श्रीश्यामाश्याम जी
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