गेंद , तृषित
जानते है आज के हम विषयी-प्रपञ्चियों के लिये सबसे अच्छा सुखमय खेल कौनसा है ...
किन्हीं ने मुझसे पूछा कि आजकल बहुत कम लिखते है आप ... ।।।
कई कारण है इस बात के उनमें एक कारण यहां कह रहा हूँ ।
वर्तमान मनुष्य का प्रचलित प्रिय खेल जो बाहर है वैसा ही वह खेल खेल रहा निज कल्याण से ।
अपने मूल कल्याण के प्रसाद को गेंद मान कर लात और बल्ला मारना आज के युग का सबसे भयानक खेल है ।
निज-कल्याण को वर्तमान भोगी जीव लात या बल्ला मार रहे है । कल्याणमय मंगल विधान का मूल स्वरूप है श्रीनारायण ही । परन्तु भोगी को निज कल्याण की चिंता नहीं है , निज भोग - निज कामना - निज सुख की ही लालसा है । वस्तुतः निज मूल भोग स्वयं प्रभु का यह कल्याण पथ है ... निज कामना मूल में श्री भगवदीय स्वरूप-स्वभाव से अभिन्नत्व है । श्री आराध्य इष्ट की सम्पूर्ण शक्तियों सँग सेवा ही जीव की मूल लालसा है और सहज ही जीव को बार-बार वहीँ कल्याण स्पर्श करने के लिये आता है । परन्तु प्रचलित खेल क्रिकेट और फुटबॉल की तरह जीव निज कल्याण सँग लात और बल्ला मार हर्षित होता है । फिर प्रभु और उनसे अभिन्न शक्तियां उस कल्याण को पकड़ कर पुनः जीव की ओर उछालते है और पुनः वह कल्याण वस्तु जीव बल्ला और लात मारता है । कल्याण वस्तु अर्थात वह मङ्गलमय विधान का निर्मल स्पर्श किसी भी रीति से । जीव प्रपञ्च में कहीं धँस जावे यह मङ्गलमय कल्याण वही छूने को आता है , और उसी स्थिति को जीव लात या बल्ला मार के उछाल कर दम्भ में फुलता है । मङ्गलमय विधान के पास इस निज कल्याण को मारने के खेल से जीव के कल्याण के पास जीव की अज्ञानता हरण का एक ही विकल्प बचता है ,मृत्यु (आउट) । परन्तु यहाँ जीव द्वारा कल्याण को लात मारने के खेल में उस कल्याणमय स्थिति या अवसर रूपी गेंद की करुणा देखिये । वह बार बार जीव को छुना चाहती है । मेरे सहित इस बात को पढ़ने वाले किसी भी मनुष्य ने ऐसा अनगिनत बार किया है , निज कल्याण को लात मारी । सुनना यह बात बड़ा कष्ट देती हो परन्तु यह हम सभी कर रहे है , धर्म रूपी वस्त्र हमने उतार दिए है और धर्म हीन अर्थात वस्त्र हीन खेल रहे है भोग कामनाओं में उलझने का खेल । व्यक्तिगत या सामुहिक कईयों से हमने अपने चैनल को सब्सक्राइब करने को कहा परन्तु स्वार्थ में धँसा जीव वहाँ निज लाभ चिन्तन छोड़ कर मेरे ही आर्थिक हित को मूल समझता है , धन रूपी अर्थ प्रधान होता तो चैनल से अधिक लाभ गन्ने का रस बेचने में है । धर्म कोई छुता ही नहीं तो धर्म सेवा मे अर्थ बुद्धि क्यों मैं लगाऊँ ...??? क्षमा स्पष्ट बात आवश्यक है । आध्यात्म एकांतिक रस है और अर्थ जुटता है बाजारों से । और बाज़ारो में वही बिकता है जो आप बाज़ारो में बिकता देखते है ...नशा और विष रूपी मद और भोग भी बिकता है । वहीं भोगविषय रूपी विष का व्यापार ही संसृत होता संसार है । धर्म मे व्यापार बुद्धि हेतु बिक्री भोग या विषय सुख की ही करनी होती है । अमृत बिकता नहीं है परन्तु बरसता सदा है । बाजारों में फिनाइल बेचने वाले भी जैसे वर्षा को अनियमित कहते है , अपना जहर बेचना जायज और वर्षा का कभी हो जाना अनर्थ लगता है वैसी ही अमृत की दशा है भोग जगत में जैसी इच्छा नहीं वर्षा की । 50 वर्ष पहले तक यह देश वर्षा के लिये सामुहिक होकर छटपटाता था परन्तु आज विषयों के लिये एकत्र होता है । भगवत मङ्गलमय विधान और कृपा रूपी अमृत मयी वर्षा का अनुभव बाह्य जगत में ना हुआ तो आंतरिक जगत में दूभर ही है ।
आज दार्शनिक कहते है मौन होकर खेल देखों । परन्तु कल्याण रूपी मङ्गलमय विधान के प्रति नेत्रहीन भोगी जीव का जो व्यवहार है वह करुण पीर से भर देता है और वह ही बरस जाती है भावुको के स्वर से यदा कदा कोई भीगे तो । परन्तु आज सभी के पास काँच के शीशमहल है और वर्षा तो उसे भिगोती है जो नीलाम्बर के आश्रय में वास करता हो । अन्य आश्रय वालों को प्राकृतिक विलास की सुगन्ध अनुभवित नहीं होती है ।
यह गेंद रूपी केवल रूपक दिया यहाँ हमने । ऐसा ही रूपक श्रीप्रियतम की बाल लीला में जहाँ स्वयं कल्याणनिधि प्रियतम प्रभु गेंद को विषय सँग से भरी कालिन्दी से निकाल कर निर्मल प्रीतरस से भरी सहज यमूना को कालियमर्दन लीला कर प्रेम को भोग-प्रपञ्च दावानल विष से मुक्त करते है । एक गेंद के लिये कोमल प्रियतम ही विष से भरी यमूना में कूद जाते है , यहाँ प्रभु श्री कालिन्दी (रसप्रेम की मङ्गलमय धारा) के संताप की निवृत्ति हेतु विषयों के मद का स्वयं स्पर्श करके मर्दन करते है और सहस्र मुख वाला यह विषय रूपी कालिया स्वयं प्रत्येक विषय रूपी मुख को श्रीभगवत चरण में सेवित कर कहता है कि हम विषयों में रसभ्रान्ति भर है , हमारे मद को चूर करते कोमल नृत्यमय रसचरण केवल आपके है । धन्य है वह गेंद (सेवा-उपचार) जिसके हेतु श्रीप्रभु विषयों से युद्ध करने हेतु और निज प्रीत धारा को सहज रखने हेतु कूद जाते है । स्वयं अमृत ही विष के मद को अमृतत्व दे सकता है । एक गेंद से प्रभु भी खेलते है और उसकी रक्षा करते है । एक गेंद को मार कर जीव लोक-प्रसिद्धि अर्जित करता है (निज मूल कल्याण रूपी गेंद) ... तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । अब पुनः पढ़े । नोट --- हृदय को नित्य ध्वणीभूत कर प्रपञ्च से छूटने हेतु यू ट्यूब पर युगल तृषित चैनल सब्सक्राइब करें और नित्य सुने ।
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