*प्यारे के नयन* कब तक है यह मन भटकता हुआ , जब तक इसे स्थिर रस ना मिले । यह वास्तविक सौंदर्य से ना टकरा जावें , दृष्टि बन भागता यह मन बहुत भागे तो टकरा जाता .. हर लिया जाता यह श्रीप्या...
*अवलम्ब* प्रबल प्रपंच की वेदनाओं में छूती मधुरा कोमल पदतल से हिय तुम सघन विक्षेप द्वन्द संग्रामों के उधर सन्ध्या हो सजती नृत्तिका सी तुम विकट जीवन की अन्धतम घाटियों से नि...
*सेवा विकास* श्री युगल के हृदय की मन की परस्पर के सुखार्थ की अनन्त वृत्तियाँ ही सखियाँ है ॥जैसे सागर की अनन्त लहरें सागर से अभिन्न ... ...सागर का ही अनन्त उल्लास वह । श्री युगल रस आ...
परस्पर जगत में बतियाना सरल है । इस प्रीति रस को झेलना उतना ही दूभर है । वहाँ निभृत स्थिति इसलिये है क्योंकि अन्य की स्थिति कुँज रस में प्रवेश की भी नहीं होती है । कुँज रस में द...
वैष्णव जीव दृष्टि से भगवत्स्वरूप का ही यथार्थ चिंतन असमर्थ है । जिस दिव्य स्थिति में रसमय सन्तों को भगवत और भक्त दर्शन अनुभूति होती है । वह स्थिति लिखित रस से बाह्य हम सब प...
*साधक के जीवन में जगत की कुछ अद्भुत महिमा* जगत सदा आपको देने के लिये प्रेरित करेगा । ज्यों ही हम लेना चाहते है जगत शून्य हो जाएगा । अतः वह कहेगा बिना लिए देते रहिये । जगत सदा आप...
पूर्वोक्त मानिनी भाव से दो कौतूहल का तनिक निदान *1.जीव प्रियतम सुं पृथक श्रीजी हिय में चाह्वे तोऊँ श्रीजी को तो केवल प्रियतम को प्रालाप स्थिति सुनाए सखी स्वकुंज में लिए जाए...
*मानिनी* हमहिं किशोरी अति भोरी है । हित समझे और कछु न समझी है । हित हेत जे सबहिं भाव धारण करे है , सबहिं कह्वे ही है जे आनन्दसिन्धु की धारिका ह्वे । आधार रह्वे है जे सबहि तत्वन के ...