निकुंज गाढ़ता , तृषित
परस्पर जगत में बतियाना सरल है । इस प्रीति रस को झेलना उतना ही दूभर है । वहाँ निभृत स्थिति इसलिये है क्योंकि अन्य की स्थिति कुँज रस में प्रवेश की भी नहीं होती है । कुँज रस में दोनों के स्वरूप का दर्शन है । निकुंज रस में स्वभाव का । निभृत रस में दोनों में स्वभाव स्वरूप का विलास-विवर्त है । अपनी स्थिति जीवन रहते पक्की कीजिये ,रस को झेलने की क्षमता को प्रकट करने हेतु.. भजन और रसिक वाणी मूल आश्रय है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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