क्या सभी लीला अनुभूति सत्य होती है ??? तृषित
क्या सभी लीला अनुभूति सत्य होती है ???
सभी लीला सत्य है । लीला की सत्यता रसिक वाणियों से अनुभव होगी । आपकी भावना रसिक वाणी से अभिन्न होंवें तब वह सहज होगी । वाणीजी सत्य है ।
रसिक कृपा से वाणी के आस्वादन से पूर्व भी वाणी के भाव हिय में भर सकते है ।
जैसे श्रीजी की मुस्कान एक माह श्रीकेलिमाल जी मे नित्य पाठ कर कोई सुने तो उनको एक अलग अनुभव होगा । भजन और वाणी आपको रस की पाचन शक्ति देते है ।
सम्पूर्ण लीला - रूप - प्रेम श्रीनाम में है ही , अनुभूति होती है उनमें कितनी आत्मीयता है । प्रगाढ़ आत्मीयता पर एक नाम मे इतना रस होता है कि उससे सर्वस्व में प्रेम की बाढ़ आ जाये । यह स्थिति होती है रसिक वाणी आश्रय और नित्य नामाश्रय से ।
साधन काल के प्रारम्भ में बहुत लीला भावना बनती है , सहज निर्मल भजन और रसिकाश्रय के जीवन में आने से पूर्व ही ।
पथ के वर्द्धन काल मे वह भावनाएं छिप भी जाती है । बहुत प्रयास से भी उनका पुनः स्पर्श नहीं होता । इससे साधक स्वरूप प्रकट होता है , वास्तविक वस्तु का पूर्व आस्वादन उन साधक को सदा सतर्क रखता है , वह नित्य प्रतिक्षण वह कारण खोजते जिससे वह ललित लीला अदृश्य हुई । यह खोज ही सर्वस्व व्यापक भोग विलास से स्वतः प्राणों को हटाए रखती है । चुँकि वहाँ वह साधक अपनी हानि जानते है , कि दर्शन छूट गया हमारा अतः सदा ही निज पतन दर्शन रहने से जीवन शैली तिनके से हल्की हो जाती है । उन्हें पढ़ना सुनना नहीं होता , यहाँ प्रेम की वह चटक सब पढ़ाती है , सब सुनाती है । और एक समय पर उन्हें पुनः रसिकाश्रय रसिक वाणियों में श्री युगल की प्रकट अनुभूति होती है , प्रकट अर्थात दैहिक नहीं । अपने वास्तविक भाव स्वरूप द्वारा श्रीयुगल अनुभव होता है । यहाँ पूर्व में हुई अनुभूति अहेतु की कृपा है । और भजन-वाणी द्वारा ही उसे पचाया जा सकता है । रसिक वाणियों में ऐसे साधक को बहुत से पद अपनी ही पूर्व स्मृति लगती है । वाणी जी जब तक इस तरह अपना लाड देकर पुचकारती नहीं तब तक साधक रसिक वाणियों के मर्म को समझ नहीं सकता ।
रसिक वाणियों में वह शक्ति है कि श्रीयुगल उन साधकों से ऐसी ललित केलि वाणीपाठ सुनने हेतु तृषित बने रहते है । किसी भी भाव साधक की मूल गति कहीं भी भटकने से छूट जब रसिक वाणी पर आकर विश्राम पाती है तब उनका रस भँग नहीं होता है ।
रसिकवाणी के भजन काल में इतनी लीलाएँ अनुभवित होती है कि वह साधक कह सकते ही नहीं ।
जहाँ आज हम इतने अहम वाच्य साधनों में है वहीं बहुत से साधक सर्व विधि थक कर वाणियों में ही वह खोया हुआ सुख पा पा कर इतने उत्साहित होते है कि बताया नहीं जा सकता । वाणी पठन से पूर्व की स्मृति में सहज प्रेम नही होता है , वहाँ जीव स्वभावगत लीला अनुभूत होती है । वाणी आस्वादन से केवल युगल की सहज माधुरी ही प्रकट रहती है । ऐसी रसिक वाणियों में रसजीवन रूप भरा हुआ है । किसी भी पद को कृपा रूप स्वीकार करने पर सभी वाणियों की धीरे धीरे कृपा बन जाती है , वह पद आंतरिक लीला का होना चाहिए । उसमें बारम्बार साधक समय निकाल गोते लगाता रहे । वह ही एक पद दर्शनों की पदावलियों की झड़ी लगा देता है । वाणी जू साधक को जब स्वयं पकड़ लेती है तब वह स्वयं भी प्रयास करें तो इस रस से छूट नहीं सकता । श्री हरिदास । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी।
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