सेवा विकास , तृषित
*सेवा विकास*
श्री युगल के हृदय की मन की परस्पर के सुखार्थ की अनन्त वृत्तियाँ ही सखियाँ है ॥जैसे सागर की अनन्त लहरें सागर से अभिन्न ... ...सागर का ही अनन्त उल्लास वह । श्री युगल रस आधिक्य में रस जडता में रहते हैं , दोनो के रूप-प्रेम पात्र बृहद हो रहे नित उस काल में स्म्मोहित स्थिति दोनों को रस में गहनता से बांधे रखती । तब यही अनन्त भाववृत्तियाँ लीला-सेवामयी वृतियां लीला-प्रवाहक शृंगार रस के परस्पर दोनों के आस्वादन हित क्रियाशील रहतीं हैं । वास्तव में सखि परमोच्च परम गहनतम् परम प्रेम अनन्त बाह्य और आन्तरिक स्थितियाँ , तरंगें या लहरें ,उन्माद - उत्सव या सेवा - केलि ... कुछ भी कह सकते हैं उन्हें युगल हृदय की । प्रथम सोपान पर पग बिना धरे परम उच्च सोपान पर कैसे पहुँचा जा सकेगा । श्री युगल से अभिन्नत्व के ही अनेकों स्तर हैं निकुंज सेवारत समस्त परिकर । जैसे श्यामसुन्दर के हृदय की एक भावना है कि मैं श्री प्रिया को चंवर डुलाऊँ तो यह भावना किंकरी रूप साकार हो नित्य श्री प्यारी को चंवर डुलावे है । उसके अतरिक्त वह कछु और न जाने है ना चाहवे है क्योंकि उसका स्वरूप ही चंवर डुलाना है । प्रियतम के हृदय में उसका यही स्वरूप था या कहिये कि वह वृत्ति ऐसे ही प्रकट हुयी तो वह नित्य वही रहेगी , यहाँ परस्पर केंकर्य लोभ ही प्रकट हो हो कर नवीन नव नव सेवा हो रहा है और दोनों में ऐसे अनन्त सेवा लोभ नित नवीन प्रस्फुरित रहते है । अब जब संसार में किसी प्रेम भावित हृदय में वही सेवा भावना गाढ़ होवेगी तो वह चेतना उसी किंकरी से एकत्व प्राप्त कर लेगी सिद्ध अवस्था में । यह बाह्य सेवा की वृत्ति हुयी ऐसे ही आंतरिक सेवा लालसा भी होती है ॥मान लीजिए कि श्री श्यामसुन्दर के हृदय की एक लालसा है कि मैं श्री प्यारी जू के श्री चरणों को चापुं तो उनकी यह प्रेममयी वृत्ति भी साकार रहेगी बाहर और भीतर ॥ जब युगल केलि रस में रसजडता को प्राप्त होने लगेगें तब उस समय यही प्रेम वृत्ति प्रियतम हृदय में इस भावना रूप प्रकट होकर उन्हें रसजडता से उबार रस पृवृत्त कर देगी ॥और यही सेवा भी होगी इस भावना रूपी सखी की ॥इसी प्रकार समस्त निकुंज परिकर श्री युगल की परस्पर प्रेममयी सेवा की अनन्त लालसायें हैं ॥ संसार में रहकर बाह्य सेवा की लालसा ही हृदय में पायी जा सकती है ॥आंतरिक युगल हृदय लालसा निकुंज प्रवेश उपरांत भाव तथा गाढता के अभिन्न होने पर तत्स्वरूप सखि चेतना से एकत्व कराती है ॥ जगत में जो हृदय जिस लालसा के भाव से निकटता अनुभव करता है धीरे धीरे उसी का अभ्यास करता है ॥यह साधन काल है ॥ वहाँ एकत्व होने पर सिद्ध कहलाते हैं ॥ यहाँ कोई नवीन भाव वहाँ सेवा नहीं कर सकता ॥ वे समस्त भाव नित्य हैं केवल उनसे अभिन्नता प्राप्ति तक साधन अभ्यास किये जाते हैं ॥ दूजा यह कि यहाँ के मायिक देहाध्यास का वहाँ कोई प्रवेश नहीं ॥ अर्थात् कोई ये सोचे कि मैं .....वहाँ सेविका तो यह सिद्ध न होगा ॥वहाँ के नाम भाव रूप सेवा सब कुछ नित्य हैं ॥ नित्य अर्थात् जो सदा से था है और रहेगा ॥ नवीन कुछ नहीं केवल हमें स्वयं को पहचानना है कि हम वहाँ किस रूप हैं ॥ मैं ....होकर वहाँ सेवा नहीं पा सकती ॥जो वहाँ हूँ उसे यहाँ रहकर पहचानना होगा ॥
युगल केलि में प्रवेश होने हेतु दर्शन में युगल सुख होना अनिवार्य है । सेवा ऐसी हो कि श्रीश्यामाश्याम के प्राणों में छिपी सुख स्थिति वहाँ सजाई गई हो ।दोनों के एक सुख का खेल एक सेवात्मक हृदय से स्फुरित हो रहा वह एक सेवामय हृदय (सखी) ही अनन्त होकर उस सुख का महाविलास (महोत्सव) रच रहा है । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । श्रीवृन्दावन ।।
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