साधक के जीवन में जगत की कुछ अद्भुत महिमा , तृषित
*साधक के जीवन में जगत की कुछ अद्भुत महिमा*
जगत सदा आपको देने के लिये प्रेरित करेगा । ज्यों ही हम लेना चाहते है जगत शून्य हो जाएगा । अतः वह कहेगा बिना लिए देते रहिये ।
जगत सदा आपको सत्य के लिए प्रेरित करेगा , ज्यों ही हम मिथ्यावादी सिद्ध होंगे, जगत सँग नहीं रखेगा । वह स्वयं कैसा हो , सँग सच्चा ही चाहिए । अतः जगत हेतु हम सभी सच्चे होने का अभिनय करते है । अभिनय की अपेक्षा हमें सत्यवादी साथियों की चाह से रहना आना चाहिये ।
जगत सन्मुख में सभी गुण चाहता है , वह अपराधी का सँग नहीं करता है । अतः जगत में हमारे अभिनय में गुणवान होना भी है । हमें उनकी भावना रूप वह सरलता , कोमलता , शील , निर्मल , उदार आदि गुण अपने मे भरने चाहिए ।
जगत विकट स्थिति में हमारे सँग नहीं होता है , जिससे निर्बलता प्रकट होती है और तब सबल प्रियतम सँग की लालसा प्रकट होती है । अतः जगत का प्रतिकूलता में सँग ना करना कृपा ही है ।
जगत अनुकूलता में साथी होता है , जिससे प्राप्त शक्ति - कीर्ति - सिद्धि आदि हमारी निज नहीं रहती । प्राप्त सामर्थ्यों का यहाँ वितरण चाहता है जगत अतः हमें अपनी अनुकूलता को वितरित करने की भावना देता है ।
जगत ही सभी संघर्षो के प्रति रूप भी और गहन संघर्ष प्रकट करता है जिससे सामाजिक होकर भी मनुष्य एकांतिक होता है और जीवन मे समोचित आध्यात्म प्रकट होता है ।
विधि का मङ्गलमय विधान ही जगत है , अतः प्राप्त स्थिति के आदर से विधान अपनी विधि से विधाता से अभिन्न बनाये रखता है ।
जगत आनन्द की अभिलाषा रखता है , जिससे हमें प्रत्येक काल मे श्रीसच्चिदानन्द के सेवात्मक-सँग में हर्षित होने की प्रेरणा मिलती है ।
जगत केवल जगत ही लेने हेतु सँग होता है । जगत को जगत से विशेष भी कोई भावना परोसी जावे तो वह वहाँ अनुपस्थित रहता है , जिससे जगत की ग्राह्य स्थिति प्रकट होती है ।
जगत केवल जगत ही देता है , अर्थात जगत रूप श्रीप्रभु को हृदय पर स्थापित करने पर जगत होकर ही उनका विलास प्रकट होता है ।
जगत की सकरात्मकता से हमारी आंतरिक शक्तियों का अभिसरण होता है अतः जगत नकरात्मक रहकर हमें आंतरिक एकाग्र कर शक्तियों को एकत्र रखने की प्रेरणा देता है ।
स्वयं को कितना भी प्रकट या अभिव्यक्त करने पर जगत एक सामुहिक भावना से ही किसी को देख पाता है अर्थात किसी व्यक्ति को कोई एक चोरी करते देखें तो वह चोर माना जाता है , जबकि चोरी का ही दूसरा नाम जगत है । ईमानदार तो वह सेवक है जो माने मेरा कुछ निज हो ही नहीं सकता है । अतः जगत सामुहिक छाप देकर , किन्हीं की निज स्वभाव को प्रकट करने पर भी अपनी ओर से पट लगा कर कृपा करता है ।
जगत की सबसे बड़ी करुणा है कि वह समोचित सभी दोष हममें देख लेता है , उन दोषों को हम स्वयं देख नहीं पाते अथवा वह निज दोष चिन्तन में होने वाली काल हानि ना होकर सीधे ही अंतःकरण की शुद्धि की जा सकती है । जगत कृपा कर सभी दोष देखकर सूचना देता रहता है , हमें उन्हें सुधारना चाहिए ।
जगत कभी भी साधना या लक्ष्य में बाधक नहीं है अपितु उसी लक्ष्य का बाह्यविस्तार रूप है , हमें विधान का सदा आदर रखना चाहिए । लक्ष्य शून्य होते ही जगत हमें अदृश्य वायु की तरह बिना देखें भी रहता है । अतः जगत साधना की स्थिति बताता है ।
जगत का कभी भी लोप नहीं होता है , वह लोप भीतर हृदय पर ही होता है । हृदय में जगत होने पर ही जगत का असर है । हृदय में जगत ना हो तब जगत अपना असर नहीं दिखाता । जगत से छूटने की एक ही जगह है - अपना रिक्त हृदय ।
जगत सर्वता में प्रीति के वितरण की असंतुष्टि भी प्रकट करता है । जगत में कितना ही सिद्ध अभिनेता - नेता होने पर भी जगत में प्रीति का वितरण होने पर प्रीति मिलती नहीं है । अतः प्रीति अनन्य रूप एकात्मक और निजतम हो ना कि व्यापक में बाह्य रूप । अर्थात यह भी जगत कहता है कि एक के होकर ही जगत के हो सकते हो , जगत का होकर एक भी प्राप्य स्थिति स्थायी रहती नहीं है ।
जगत प्रीति का विलोम रूप है , प्रीति जगत में रहकर स्वहीन स्थिति है । जगत से प्रीति केवल स्वार्थ है , एकात्मक प्रीति में स्वयं ही खोता जाता है तब जगत होकर भी होता नहीं है । जगत सामर्थ्य भावनाओं अभिसार (विसर्ग) है । प्रीति भावनाओं का महाभाव है (सर्ग) । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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