पूर्वोक्त मानिनी भाव से दो कौतूहल का तनिक निदान
पूर्वोक्त मानिनी भाव से दो कौतूहल का तनिक निदान
*1.जीव प्रियतम सुं पृथक श्रीजी हिय में चाह्वे तोऊँ श्रीजी को तो केवल प्रियतम को प्रालाप स्थिति सुनाए सखी स्वकुंज में लिए जाए ह्वे ।*
बहुत सा जगत का वन्दन हम देखते है जहाँ श्रीजी कृपा करो , किशोरी अपनाए लो भाव है । आदि भाव है । वहाँ प्रियतम पूर्व में विराजमान होवें उनके हेतु दासी विनय करें तब श्रीजी पिय से मिलें । प्रियतम हिय पर आवे इसलिये ही जीव में उनकी लीला नाम झाँकी आदि प्रकट की जाती है , या हो जाती है । श्रीजी की भावरस लीला तो प्रियतम के पूर्ण प्रकट होने पर ही प्रकट होती है ।
भक्ति श्रीहरि का आह्लाद तत्व है , जैसे हमारे प्राण छुटे हो वैसे श्रीप्रियतम का प्रालाप है , वह आरूढ़ होते ही श्रीप्रिया आश्रय से है और श्रीप्रिया ना होवें सँग तो निज आह्लाद की वेदना में वह आह्लादित होते है । जीव भाव मे श्रीकिशोरी जू का गान आदि सुनकर अगर सम्बन्ध बना है तो वहाँ आत्मीयता उतनी प्रबल नहीं है । निजता श्रीजी की प्रकट होती है तो इनकी ही कृपा से , जिससे इनकी समग्र पुष्टि की सेवा विकसित होती है । श्रीप्रियतम हेतु श्रीजी नित्य श्रृंगारित है यह मान उनके भीतर की प्रगाढ़ महाभाव लज्जा को दासी श्रीप्रियतम की करुण स्थिति सुना कर भीतर लाती है । यहाँ श्रीयुगल मिलन होता है । हृदय का सम्पूर्ण ताप शीतल होता है । भीतर प्रियतम न हो और प्रिया को बैठा लिया जावें तो श्रीप्रिया की सेवा होगी कैसे ??? श्रीप्रियाजू का सम्पूर्ण श्रृंगार-सुख कौन है ???
श्रीप्रियतम भीतर हो और प्रीति(श्रीप्रिया) ही न हो तब श्रीप्रियतम की रस सेवा कौन कर सकें , अन्य कोई कुंजेश्वरी में सम्पूर्ण महाभावों की सम्पूर्ण एकांतिक पुष्टि एककाल में ठहरती ही नहीं है । केवल श्रीप्रिया उनकी आस्वादिका है ,आस्वादन है । दोनों की परस्पर अनन्यताओं की गाथा रसिक वाणियाँ बहुत गाती है । वहीं अनन्य प्रियता को प्रेमास्पद की स्थिति द्वारा पुकारा जाता है । सत्य में जब दोनों भीतर होंवें अचानक किन्हीं बाह्य स्पर्श से श्रीजी लज्जा का पट कर लें तब प्रियतम हिय में व्याकुलित होते है । वास्तविक भक्त ना तो रस रूप है , ना भाव रूप है । वह महाभाव महारसराज की नित्य सेविका है ...सेवा है । अपने को सन्मुख स्थापित करने से जीव की नित्य युगल दास्यता प्रकट नहीं होती ।
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*2 एकहूँ विनय कि अति गहन कुँजन में श्रीजी को मान दर्शन न होंवें है जे प्रवेश लीला ह्वे ।*
दोनों में कोई सुख की हानि है , कोई पट है । कोई आवरण है तब ही मान है । श्रीयुगल हिय में नित्य विराजित है । और उनकी आंतरिक प्रियता परस्पर पुष्ट हो रही है । श्रीयुगल की परस्पर माधुरी बनी हुई है , वें परस्पर सुख के बिहार में भीगे हुए है तब उनका निभृत सुख फूल रहा है । ऐसी स्थिति में मान नहीं रहता । परस्पर प्रगाढ़ प्रीति में दोनों परस्पर तन-मन-प्राण की सेवा होते रहते है । यहाँ अत्यंत शीतलता मधुता नित्य है और श्रीयुगल का अखण्ड केलिविलास रूपी विश्राम है । और यह स्थिति प्रगाढ़तम होती जा रही है , यह स्थिति अत्यन्त निज है , अत्यन्त गहनता से अभिन्नतम होती जा रही है । श्रीयुगल नित्य अभिन्न सुख होकर भी प्रेमरस की नित्यता से उस अभिन्नता में और नित्य अभिन्नतायें गूँथते है । परस्पर हिय के एक-एक भाव, एक-एक लालसा हेतु दोनों हिय में भावनिकुंज प्रकट होती है और एक-एक भाव की अभिन्न लीला भीतर ही भीतर फूलती रहती है । उन्हें परस्पर के सुख और रस से छूटने के कोई अवकाश या अवसान नहीं है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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