मानिनी , तृषित
*मानिनी*
हमहिं किशोरी अति भोरी है । हित समझे और कछु न समझी है । हित हेत जे सबहिं भाव धारण करे है , सबहिं कह्वे ही है जे आनन्दसिन्धु की धारिका ह्वे । आधार रह्वे है जे सबहि तत्वन के तत्व श्रीरस स्वरूप श्रीकुंजबिहारी जू कौ ।
किशोरी के मान में बड्यो ही चमत्कार रह्वे है जेई के मान में भी हित बसे है । प्रेमास्पद प्रियतम हित अतिरिक्त श्रीजी अपनो कोऊँ हित पृथक न जाने है । हित हेतु लीला है , सुख को खेल है सबहिं रीति सुं । श्रीजी के मान को जगत कबहूं अनुभव न करि सके । जगत को मान प्रकट होवें ह्वे आत्मसुख अभाव ते , श्रीजी को आत्म रूप प्रियतम ही ह्वे । प्रियतम सुख पूर्णता हेत श्रीजी मान लीला रखे है । प्रेम में जबहिं क्षणिक भेद रह्वे , प्रेमास्पद सँकोचित होय केंकर्य लोभ तोऊँ रखें परन्तु निज हिय को समुचित पोषण न धारण करें तबहिं श्रीजी मान रखे । जे मान ते प्रियतम श्रीजी की प्रसन्नता अभाव ते अति व्याकुलित होय अति प्रियता सुं श्रीजी को रिझावै है । अहा ।
जेई श्रीजी को मान प्रियतम पे ना है जे निजसँकोंच और लज्जा को सघन स्वरूप ह्वे । सखी श्रीजी को सँकोच को भेद को पट हटाए दे , श्रीजी समक्ष श्रीप्रियतम की तृषित स्थिति को मरम गान सुनावै जेई प्रियतम की अति गम्भीर प्रेम व्याकुलता ते श्रीजी प्रेमरस सुधा को वेग रोकि न सके और सब पट हटाए प्रियतम हिय को शीतल निदान देंवें । अहा । श्रीजी को मान जोई प्रियतम की तृषा को समुद्र पुष्ट करे है । तृषा की प्रियतम माई सघनता ही श्रीजी सुं समता होय श्रीजी को मूल तोय नित्य तृषा है - प्रियतम सुख तृषा । जे सुख हेत श्रीजी की सम्पूर्ण ललितलीला सिन्धु नवीन मधुरामृत सुधा सी बह्वे ह्वे । जीव तो विकार को पुंज है , जे प्रेमरस की महा कोमल पूँजी श्रीजी को चिन्तन सुन ही नाय सकें , तबहिं श्रीजी की कृपा कोर को दर्शन की सहज लालसा न रखे । रसिकन जीव रीति से श्रीजी को न रिझावै है । वेई तो प्रेमास्पद हेत श्रीजी को मान भँग करें ह्वे । जीव प्रियतम सुं पृथक श्रीजी हिय में चाह्वे तोऊँ श्रीजी को तो केवल प्रियतम को प्रालाप स्थिति सुनाए सखी स्वकुंज में लिए जाए ह्वे । श्रीजी कोऊँ मनानो ह्वे तोऊँ प्रियतम हेतु मनायो जाय , प्यारे रस प्रियतम को रसबाधा न होंवें । प्रियतम हियकुंज पे आवे ही श्रीजी की महिमा सुं । श्रीजी ठहरे प्रियतम सुख सुं । जेई परस्पर पूँजी है श्रीयुगल । जेई को पृथक करवे में , और पृथक चाह्वे में कोऊँ हेतु न ह्वे । वल्लभित होय , परस्पर सुख में रमण होय जे नित एकहिं कुँज में नित वास रखें है । राधा सुं माधव ह्वे । मधुपानातुर माधव । आराधनातुर श्रीराधा । माधव की जे माध्वी नित आराधना करें ह्वे मधुतम आसव रह्वे श्रीप्रियतम को जेई आसव(आस्वादन) को एक खेल ह्वे जे श्रीजी को मान । एकहूँ विनय कि अति गहन कुँजन में श्रीजी को मान दर्शन न होंवें है जे प्रवेश लीला ह्वे । आप देखो हि ज्यों दोऊँ नन्हें शिशु परस्पर प्रेम रखें , कछु दिन न मिले तोऊँ तनिक काल सँकोच रखे । तनिक देर में सँकोच मिटे तो एकहिं खेल सुं खैले । प्रेमी को रूदन भी प्रेमास्पद को सुख को ही हेतु है । जगत जेई प्रेम की लीला को अनुभव करि न सकें , जगत स्वार्थ बुद्धि रखें सर्वलीला में । प्रेम तोऊँ प्रेमी को सुख के अभाव में तनिक उतार आवै ही कम्प जाय । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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